कितने टुकड़ों में बटेगा आदमी,
आदमी कब फिर बनेगा आदमी।
बहती नदी है साफ भी हो जायेगी,
जब गंदगी अपनी चुनेगा आदमी।
कल बदल के यार मौसम आएगा,
फिर और भी बेहतर करेगा आदमी।
फैसला कर शोर से बाहर निकल,
यूँ लडखडाता चल सकेगा आदमी।
खर्च मत यूँ ज़िन्दगी को बे-हिसाब ,
संग वक्त के चलना पड़ेगा आदमी।
धूप-छांव,रात-दिन का शुभ लगन,
संभलके आसमां छूना पड़ेगा आदमी।
मुझको मेरा चाहिए,अपना संभाल,
तू ना बढ़ेगा और ना घटेगा आदमी।