ज़िन्दगी थक कर ठहर जाती है जब ,
फिर कोई ताज़ा लहर आती है तब।
जब कोई आहिस्ता दिलों से रूह तक,
छूकर अगर गुजरे दुआ,कहलाती है रब।
पहले सहर फिर गुनगुनी दोपहर में ,
याद से तेरी हर शै महक जाती है तब ।
शोर में ,तन्हाई में ,दर्द की गहराई में,
आंख खोलूं बस तू नज़र आती ही अब।
वक्त था न कि ज़मीं जो नाप लेंगे दोवारा,
जाने बाली रौनके लौटकर आतीं हैं कब।
ज़िन्दगी कहलो या फिर शिव की जटाएँ,
ब्रह्मदर्शन से बंधी गाँठ खुल जाती है तब।
बैठकर दरिया किनारे ताकता हूँ मौज को,
मौज मैं बन जाऊंगा वो लहर आएगी जब।