तुम क्यों नहीं बताते मेरी खता हुज़ूर,
दिल मानता नहीं है ,दोनों हैं बेकुसूर,
बिखरे पड़े हैं देखो पुर्जे शरारतों के,
जीने की आरज़ू में,मरने का है गुरुर।
कैसे बुलाऊँगा,ना घर,कोई ठिकाना,
घर बन सका तो यारों दूंगा पता जरूर।
क्यों आज फिर जुबां पे तेरा ही नाम है,
जाकर कहाँ छुपा,है नज़रों से बहुत दूर।
तू एक बार सुन ले दिल की पुकार दिलसे,
हो जायेगा यक़ीं फिर घुल जायेंगे फितूर।
आँखों में डव -डबा के पलकों पे छा गए,
क्यों आदमी के सपने होते हैं चूर-चूर।
बहती नदी के सपने सागर निखरता है,
हर बूँद धार बन कर बहती है नूर-नूर।