अब वो खुशबू कहाँ गुलाबों में,
जबसे कांटे घुले शबाबों में।
बात समझी नहीं चले आये,
ज़िन्दगी क़ैद थी हिसाबों में।
कुछ तो रुख़ पे नक़ाब जैसा था,
यार देखा है तुमको ख़्वाबों में।
अलग अल्फ़ाज में तराशो जरा
तुमको छपना है कल किताबों में।
मैं डुबा दूँ गम-ए-जहां जिसमें,
इतनी औक़ात कहाँ शराबों में।
आग बुझती नहीं बुझाने से,
उगला बारूद फिर जबाबो में।
रात दिन का पता नहीं भूली,
सहर दोपहर शाम ख्वाबों में।
अजनबीं मोड़ मुड गईं राहें,
खुद को पाया है इन्कलाबों में।
बात'अनुराग'समझिये दिल की,
नाम लिखना मगर खिताबों में।