***ग़ज़ल***
खेत,घर,आँगन दीवारे सबके सब टूटे पड़े हैं,
खुशनुमां बर्षा नहीं थी रात भर ओले पड़े हैं।
वो आज बातों से हमारे दिल को फिर बहलाएंगे,
कहीं भाग सकते भी नहीं पाँव में छाले पड़े हैं।
जुगनुओं के पर जलें,बिजली गिरी है रात भर,
है क़ैद में सूरज चिरागों के भी घर ताले पड़े हैं।
कैसे पिघलेगा बता ज़ालिम हुक़ूमत का गुरुर,
तेरी अपनी मुश्किलें हैं उनके मन काले पड़े हैं।
तू भूल जा नुक्कड की चाय और चर्चा बंद भी कर दे,
चल काम पर चल बावले खाने की भी लाले पड़े हैं।
एक दिन तो ये अँधेरा भी मिटेगा शर्तीयां लेकिन,
यारों यहां कई मर्तबा सूरज भी उगाने पड़े हैं।
हैं महल कल खंडहर हो जाएंगे मजबूरियां ज़ाहिर,
अच्छे-बुरे'अनुराग'दिन आखिर तो निभाने पड़े हैं।