***ग़ज़ल***
फिर क्यों कदम तेरे मेरे बहकने लगे हैं,
प्यार कर फूलों को कांटे महकने लगे हैं।
चलते-चलते मिले अजनबी मोड़ पर हम,
मगर हो गए एक तो फिर बिछड़ने लगे हैं।
गर्म साँसों में ढल कर बन गए आप पानी,
और मिल कर हवा से ग़म बरसने लगे हैं।
तुम्हें जिस्म की सलवटों में हर कहीं ढूंढते,
वक़्त से टूटे लम्हे-लम्हें बिखरने लगे है।
पानी नहीं दिल दर्द की गहरी नदी है दोस्त,
मगर रिश्ते फरेबी बेवफा लगने लगे हैं।
गर्द-ए-निगाहें थीं या धुंधला आईना था,
अक़्स को देख कर चेहरे चटखने लगे हैं।
बादलों के संग नहीं बरसे कभी आसमां ,
अहदे 'अनुराग'के सपने पिघलने लगे हैं।