है जिनके पंखों पर पतंगों का सफर,
होता नहीं क्यों उन हवाओं का ज़िकर।
और कितने दिन पीओगे आबरु को,
क़तरा-क़तरा जिस्म है किसका फ़िकर।
उग रहीं हैं खुशनुमां गुल-में-बहार,
होगा गुलशन में फिजाओं का महर।
बहुत दिन तुमने तराशा ज़िन्दगी को,
अब जांचने दो न इन्हें इनका हुनर।
अब ना सताओ तुम बफा के नाम पर,
फिर बसने दो बेघर परिंदों का शहर।
इन ज़ुल्म-ऐ-तहजीबियों की कब्र से,
तू मत उगल फिरका-परस्ती का ज़हर।
खोल दो खिड़की दरीचे तंग चिलमन,
आने दो ताज़ा हवाओं का लहर।
कल रोशनी ने बुन लिया सूरज नया,
होगा बहुत मुश्किल अंधेरों का बसर।
हम भूल कर बैठे तुम्हारा शुक्रिया,
जो भी है वह सब दुआओं का असर।