क्यों शहर के घर गली दहशत ज़दा है,
नफरत-ए-बरवादियों का दबदबा है।
बन गया है बुत सिमट कर आदमीं भी,
जश्न-ऐ-आतिश में सबका घर जला है।
बेबसी के बोझ तले वो दब गया है,
है धुआँ बुझता हुआ सा हौंसला है।
सुना है रंग तेरे खून का भी लाल,
बंद कर खून-ओ-खराबा बावला है।
मत हो परेशां साथ क्या ले जायगा,
तुमको भी दो गज कफ़न का वास्ता है।
थामले ऊँगली समय के साथ हो ले,
खुद से करना सामना ये सिलसिला है।
अब तो रखलो म्यान में खंजर हुजूर,
फिर मुस्कुराने का तुम्हें न्यौता मिला है।