***ग़ज़ल***
लगा है पाँव में कांटा लहू आँखों से बहता है,
ये कैसी पीर है यारों ये कैसा सिलसिला है।
नहीं वाकिफ नहीं है आदमीं जलते चिरागों से,
बहाव-ओ-दिल हमारा घर चिरागों से जला है।
दीवारें हैं तो पर शायद कहीं बुनियाद टूटी है,
गुलिस्तां दूर तक बंजर मकां खाली पड़ा है।
ना कोई शोर ना हलचल,महज़ आबाद सन्नाटे,
हाँ इसे गुलज़ार करने का हमें मौका मिला है।
हमारे बीच इक दरिया ,दरकते दो किनारे हैं,
हम भला कैसे मिलेंगे पुल अधूरा ही बना है।
मुझे मंजूर है हर शर्त संभालो और संभल जाओ,
मैं खुश हूँ ज़िन्दगी में जो भी मुकद्दर से मिला है।
ना कोई रंज है दिल में,ना शिकवा ना ही मलाल,
इरादा भी अटल है अब भी गज़ब का हौंसला है।
अवधेश प्रताप सिंह भदौरिया'अनुराग'Dt.27032016/ccrai/olp/doct.