अद्भुत अद्वितीय अकल्पनीय अविश्वसनीय कष्टों से मुक्ति पाने में सफलता की ओर बढ़ने पर मन मस्तिष्क में एक विचित्र प्रश्न उभर रहा है कि विद्वान लोग मुझे समझाना क्या चाहते थे? क्या उपदेश देना चाहते थे? अपने मौलिक अधिकारों को प्राप्त करने से मुझे क्यों मना करना चाहते थे? मेरे घर को कुरूक्षेत्र का युद्ध मैदान क्यों बनाना चाहते थे? राष्ट्रीय चरित्र का चित्रण करते हुए अपने वेतन भत्तों को पाने हेतु दशकों से चल रहे मेरे संघर्ष को क्यों रोकना चाहते थे? मुझे देय असंवैधानिक पागल की पैंशन को बंद करवाकर अपना "उच्च अधिकारी पद" पाने से क्यों रोका जा रहा था? मेरे अधिकारी बनने से किसको हानि होने का डर था? पारिवारिक सुख समृद्धि हेतु मेरे दृढ़ संकल्पित संवैधानिक श्रेष्ठ प्रयासों को गतिहीन करने के पीछे की कड़वी सच्चाई क्या थी?
प्रश्न स्वाभाविक हैं कि भ्रष्टाचारमुक्त भारत जैसे संवैधानिक राष्ट्रीय संघर्ष को आगे बढ़ाने पर मुझे रोकना किस किसके लिए हितकारी था और यदि मैं मौलिक कर्तव्यों को निष्ठापूर्वक सम्पन्न करते हुए अपने मौलिक अधिकारों की मांग कर रहा था तो उसमें मुझे समझाना क्या था? जिनमें विशेषकर पेट की तपेदिक रोग का उपचार कराने में भी मेरे विभागीय वरिष्ठ अधिकारियों से लेकर मेरे भाई बंधु, रिश्तेदार, बिरादरी, मित्र वर्ग, अड़ोसी पड़ोसी, कस्बे के विद्वान भी मुझे क्या समझाना चाहते थे? उल्लेखनीय है कि बहुत सारे उच्च एवं शीर्ष अधिकारी मुझे समझाने वाली सूची में सूचीबद्ध हैं। जिनमें कनिष्ठ अभियंताओं से लेकर मुख्य अभियंता, कैप्टन से लेकर बिग्रेडियर पद, अधिवक्ता एवं डॉक्टर, विधायक एवं सांसद, संवाद सहयोगियों से लेकर वरिष्ठ पत्रकारों तक मुझे समझाने में शामिल थे। आज भी उपरोक्त प्रश्न का मुझे उत्तर नहीं मिल रहा कि उपरोक्त विद्वान अपने मौलिक कर्तव्यों को त्यागते हुए मेरी सहायता करने के स्थान पर मुझे समझाने के लिए उनकी मानसिकता क्या थी? जबकि वर्तमान में मेरे द्वारा दायर याचिकाओं पर माननीय जम्मू और कश्मीर और लद्दाख उच्च न्यायालय के माननीय विद्वान न्यायाधीशों द्वारा मांगे गए जवाबों पर मेरा विभाग, डॉ राममनोहर लोहिया अस्पताल और सफदरजंग अस्पताल के मनोचिकित्सकों सहित व्यवस्थापक भी पिछले नौ महीनों से चुप्पी साधे हुए हैं।
चूंकि मैंने अपने साठ वर्षीय जीवन में अपने मौलिक कर्तव्यों को निष्ठापूर्वक करते हुए अपने मौलिक अधिकारों की रक्षा एवं सुरक्षा का कार्यभार माननीय जम्मू और कश्मीर और लद्दाख उच्च न्यायालय को सौंपा है। चूंकि सर्वविदित ही नहीं बल्कि न्यायसंगत उचित उल्लेखनीय है कि मेरे मौलिक अधिकारों की रक्षा करना माननीय जम्मू और कश्मीर और लद्दाख उच्च न्यायालय का संवैधानिक मौलिक कर्तव्य है। माननीय उच्च न्यायालय के माननीय विद्वान न्यायाधीश मेरे संवैधानिक मौलिक अधिकारों की सुरक्षा के प्रति सदैव वचनबद्ध हैं। जिसके लिए मैं माननीय महामहिम राष्ट्रपति श्रीमती द्रौपदी मुर्मू जी, माननीय प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी जी और माननीय उच्चतम न्यायालय के माननीय विद्वान मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति श्री डी वाई चंद्रचूड़ जी से पत्राचार के माध्यम से निरंतर संबंध स्थापित किए हुए हूॅं। जिसके लिए अब ममतामई माननीय महामहिम राष्ट्रपति श्रीमती द्रौपदी मुर्मू जी माननीय उच्चतम न्यायालय के माननीय विद्वान मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति श्री डी वाई चंद्रचूड़ जी को सार्वजनिक मंचों पर सीधे सीधे नपेतुले शब्दों के माध्यम से उनके कान भी सहला रही हैं और जम्मू और कश्मीर के माननीय उपराज्यपाल श्री मनोज सिन्हा जी के कर कमलों द्वारा मेरे आलेखों को माननीय जम्मू और कश्मीर विधिक सेवा प्राधिकरण के सदस्य सचिव एवं माननीय जम्मू और कश्मीर और लद्दाख उच्च न्यायालय की रजिस्ट्री के समक्ष समाधान हेतु प्रस्तुत भी कर रही हैं। जिसके लिए मैं माननीय महामहिम राष्ट्रपति श्रीमती द्रौपदी मुर्मू जी का हार्दिक आभारी हूॅं।
उल्लेखनीय यह भी है कि उपरोक्त राष्ट्रीय संघर्ष की व्यस्तता के कारण मैं अपनी धर्मपत्नी श्रीमती सुशीला बाली की झोली में वह समस्त खुशियां नहीं डाल सका था जिसकी वह अधिकारी थी। जिसके लिए मेरे साथ साथ माननीय जम्मू और कश्मीर और लद्दाख उच्च न्यायालय भी बराबर का दोषी हैं। जिन्होंने न्यायिक भ्रष्टाचार के आधार पर उसकी याचिका ओडब्लयूपी अंक 968/1996 को यह कहते हुए रद्द कर दिया था कि उसके पति इंदु भूषण बाली सहित उसके किसी भी अधिकार का हनन नहीं हुआ है। जिसमें तत्कालीन माननीय न्यायाधीश न्यायमूर्ति श्री ए एम मीर जी ने ना सिर्फ अपने संवैधानिक मौलिक कर्तव्यों को भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ा दिया था बल्कि न्यायाधीश की अति संवेदनशील कुर्सी पर बैठकर मेरी धर्मपत्नी श्रीमती सुशीला बाली और हमारे बच्चों के मौलिक अधिकारों पर डाका डाला था। जिसे न्यायिक आतंकवाद ही नहीं बल्कि संवैधानिक बलात्कार कहना अतिश्योक्ति नहीं है। जिसकी क्षतिपूर्ति कभी नहीं हो सकती। परन्तु उसे सिद्ध करने हेतु मैं अपनी धर्मपत्नी के साथ साथ अपने बच्चों के मौलिक अधिकारों को प्राप्त करने हेतु तन मन और धन से प्रयासरत ही नहीं बल्कि संवैधानिक संघर्ष में लीन भी हूॅं। जिन्हें ईश्वरीय कृपा से माननीय जम्मू और कश्मीर और लद्दाख उच्च न्यायालय से प्राप्त खुशियों को "सांसारिक खुशियों से वंचित" अपनी धर्मपत्नी श्रीमती सुशीला बाली की झोली में तुरन्त डालने के लिए हार्दिक तत्पर हूॅं। जिसके फलस्वरूप बच्चों सहित सुशीला-भूषण का भरत मिलाप की भांति पुनर्मिलन होगा। जिससे मेरा सम्पूर्ण परिवार, भाई बंधु, मॉं तुल्य बड़ी और बेटी तुल्य छोटी भाभियां, रिश्तेदार, मोहयाल बिरादरी, मित्र वर्ग, पत्रकार और लेखक समुदाय और अड़ोसियों पड़ोसियों सहित सम्पूर्ण राष्ट्र गौरवान्वित अनुभव करेगा।
ऐसे में खुले मंच से समझाने वाले तथाकथित विद्वानों से मेरी सार्वजनिक चुनौतीपूर्ण प्रार्थना है कि सादर आओ और लोक न्यायालय के खुले मंच पर मुझे समझाओ, जो आप मुझे समझाना चाहते थे और राष्ट्रसेवा में लिप्त विद्वान व्यक्तित्व को क्यों समझाना चाहते थे? ताकि मेरे साथ साथ सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को पता चले कि आपकी विद्वता का स्तर और मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण क्या थे और क्या हैं? ॐ शांति ॐ