जम्मू और कश्मीर कला संस्कृति एवं भाषा अकादमी जम्मू द्वारा आयोजित सात दिवसीय बहुभाषी कनिष्ठ कहानी महोत्सव के आयोजन का आज चौथा दिन था। जो पंजाबी भाषा को समर्पित था। जब मैं के.एल. सहगल सभागार में पहुंचा तो कार्यक्रम आरम्भ हो चुका था। जिसमें एक विद्वान युवा साहित्यकार अपनी कहानी पढ़ रहे थे। सभागार में अधिकांश विद्वान मेरे अपरिचित थे। परन्तु ईश्वरीय कृपा से कतिपय मेरे विद्वान मित्र भी उपस्थित थे। जो मुझे निरंतर प्रोत्साहन करते रहते हैं और मेरे खोए हुए आत्मविश्वास को बढ़ाने में सहायक सिद्ध हो रहे हैं।
उल्लेखनीय है कि अत्याधिक गर्मी और उमस के कारण अकादमी द्वारा आयोजित सात दिवसीय बहुभाषी कनिष्ठ कहानी महोत्सव के तीसरे दिन मैं कार्यक्रम से पूर्णतः अनुपस्थित रहा था। जो गोजरी भाषा को समर्पित था। जिसका मुझे हार्दिक खेद है। चूंकि स्पष्टतया गोजरी भाषा के विद्वानों की कहानियों के प्रदर्शन का मैं मूल्यांकन नहीं कर सकूंगा और ना ही उसका अन्य भाषाओं के विद्वानों से प्रतिस्पर्धात्मक विष्लेषण करने में सक्षम होंगा।
परन्तु मैं वैश्विक सकारात्मक सोच वाले कर्मशील लेखकों में से एक हूॅं। जिसके आधार पर जिसे खो दिया उसका गम नहीं करता और जिसका वर्तमान समय में ईश्वरीय आशीर्वाद प्राप्त हुआ उसका हृदय तल से आनंद उठाने में विश्वास रखता हूॅं। उदाहरणार्थ मेरी राष्ट्र के प्रति राष्ट्रभक्ति की भावना को मेरे कतिपय विभागीय भ्रष्ट एवं क्रूर अधिकारियों ने मुझपर झूठा राष्ट्रद्रोही गतिविधियों का कलंकित आरोप लगा दिया था। जिसका दण्ड मृत्युदंड से कम नहीं होता है। जिसकी असहनीय पीड़ाओं से मुझे अंतड़ियों का क्षय रोग भी हो गया था। परन्तु मैं सकारात्मक सोच से संघर्षरत रहा और अब सफलता प्राप्ति के बहुत निकट पहुंच चुका हूॅं। इसके बावजूद कतिपय स्वार्थी, चाटुकार और मूर्ख विद्वानों ने मुझे उपरोक्त अकादमी में "नकारात्मक" सोच के लेखन की संज्ञा से बदनाम भी कर दिया था।
वर्णनीय है कि उक्त बदनामी से मुझे आर्थिक ही नहीं बल्कि मानसिक क्षति भी पहुंची। जिसकी क्षतिपूर्ति संभवतः इस जन्म में संभव नहीं है और पुनर्जन्म मैं लेना नहीं चाहता। क्योंकि सकारात्मक लेखन का मैं अद्वितीय लेखक हूॅं। जिसे सिद्ध करने का मुझे सौभाग्य प्राप्त हो रहा है और अकादमी के विद्वान प्रशासनिक अधिकारी आदरणीय सचिव श्री भरथ सिंह मन्हास जी मेरा सहयोग भी कर रहे हैं। क्योंकि वह सार्वजनिक मंच पर स्पष्ट कहते हैं कि प्रत्येक मानव में कोई न कोई विशेष विशेषता अवश्य होती है। जिनकी अनमोल भविष्यवाणी पर न्यायिक दृष्टिकोण से माननीय जम्मू और कश्मीर और लद्दाख उच्च न्यायालय के माननीय विद्वान न्यायाधीश भी शीघ्र ही दायर मेरी उत्कृष्ट याचिकाओं के आधार पर "सकारात्मकता" की मोहर लगाएंगे। जिसके लिए मैं पिछले कई दशकों से प्रतीक्षा कर रहा हूॅं और स्वर्णिम विजयश्री की आशा का दीप जलाए बैठा हूॅं।
सौभाग्यवश आशा ही जीवन का आधार माना जाता है और उसी आशा के वशीभूत होकर मैं पंजाबी की कहानियां सुनता जा रहा था। जिनकी करूणा से कई बार मेरी आंखों से मोती लुढ़के थे। मैं सोचने पर विवश हो रहा था कि उक्त कहानीकार कितने अच्छे हैं। जो काल्पनिक साहित्य लेखन में व्यस्त होकर न जाने क्यों "सत्य लेखन" से कन्नी काट लेते हैं? यह कहानीकार तो काल्पनिक पात्रों को भी संजीवनी बूटी पिलाकर संजीव रखने में दक्ष हैं। परन्तु सत्य पर आधारित सजीव पात्रों को मरने के लिए क्यों छोड़ देते हैं? मुझे याद आया कि इसी अकादमी में कुछ वर्ष पूर्व जब डोगरी कान्फ्रेंस में मैं अपनी छम्ब विधानसभा क्षेत्र के माननीय विधायक डॉक्टर कृष्ण लाल जी से अपनी व्यथाओं को सुलझाने के लिए चर्चा कर रहा था कि वहां उपस्थित वर्तमान पद्मश्री पुरस्कार से सम्मानित साहित्यकार श्री मोहन सिंह सलाथिया जी ने मेरी वेदना को समझते हुए खुले मन से कहा था "बाली साहब चूंकि आपके मामले में माननीय उच्च न्यायालय अपना निर्णय दे चुकी है इसलिए चाहकर भी हम कुछ नहीं कर सकते। परन्तु एक बात समझ नहीं आ रही कि बिना दिव्यांगता प्रमाणपत्र के माननीय न्यायालय ने आपकी दिव्यांगता पेंशन कैसे लगा दी जो हमारी समझ से परे है"? उपरोक्त शब्द उन्होंने दृढ़तापूर्वक उन स्वार्थी चाटुकार लेखकों की सार्वजनिक रूप से लगाम खींचते हुए निस्वार्थ भाव से कहे थे। जो मुझे "सिरदर्द" की संज्ञा देते हुए विधायक और उनके बीच मुझे बाधा मान रहे थे। जिसके लिए आज भी मैं पद्मश्री मोहन सिंह सलाथिया जी को साधुवाद देते हुए उनका हृदय तल से आभार व्यक्त करता हूॅं।
ऐसे में प्रश्न स्वाभाविक हैं कि साहित्यकारों को निडर होना चाहिए। सत्य के लिए प्राणों की आहुति देने में सक्षम होना चाहिए। जिन्हें ज्ञात होना चाहिए कि राजाओं महाराजाओं के समय में राजा अपनी अस्मिता की सुरक्षा हेतु अपनी गर्दन दांव पर लगाकर युद्ध लड़ते थे और आक्रमणकारियों के दांत खट्टे करने का साहसिक मनोबल रखते थे। ऐसे में समकालीन लेखक अपने साथी लेखक के प्रति असंवेदनशील क्यों हैं? क्यों हमारे लेखक इतने बौने और कायर हैं?
मेरे मन मस्तिष्क में चल रही प्रतिद्वंद्व की तंद्रा की श्रंखला उस समय भंग हुई जब कार्यक्रम की अंतिम कहानी पढ़ रहे पंजाबी साहित्यकार आदरणीय डॉ. बलजीत सिंह रैना जी ने अपनी कहानी को समाप्त किया था। यह बात अलग थी कि अब बात चाय पीनी या नहीं पीनी पर अकादमी के विद्वान सांस्कृतिक अधिकारी श्री शेख शाहनवाज़ जी प्रतिस्पर्धात्मक चर्चा कर रहे थे और मेरे मनमस्तिष्क में डोगरी और पंजाबी भाषा की कहानियों की तुलना में जम्मू और कश्मीर की हिंदी भाषा पर विचार मंथन चल रहा था। जिसमें मेरा मन और मस्तिष्क जानना चाहता था कि जम्मू कश्मीर विश्वविद्यालयों के हिंदी शोधार्थियों एवं उनके प्रोफेसरों के होते हुए भी जम्मू और कश्मीर की हिंदी इतनी अशुद्ध, अशक्त एवं उर्दूयुक्त क्यों है और वरिष्ठतम साहित्यकारों द्वारा मूर्खतापूर्ण अहंकार की पराकाष्ठा तक बड़े-बड़े दावे करने के बावजूद हिंदी भाषा दिव्यांग क्यों है? जय हिन्द। सम्माननीयों ॐ शांति ॐ
द्वारा
इंदु भूषण बाली
व्यक्तिगत रूप से याचिकाकर्ता (पिटीशनर इन पर्सन)
वरिष्ठ लेखक व पत्रकार, राष्ट्रीय चिंतक, स्वयंसेवक, भ्रष्टाचार के विरुद्ध विश्व की लम्बी ग़ज़ल, राष्ट्रभक्ति एवं मौलिक कर्तव्यों के नारों में विश्व कीर्तिमान स्थापितकर्ता
एवं
भारत के राष्ट्रपति पद का पूर्व प्रत्याशी,
वार्ड अंक 01, डाकघर व तहसील ज्यौड़ियां, जिला जम्मू, केंद्र शासित प्रदेश जम्मू और कश्मीर, पिनकोड 181202।