मेरा जीवन एक खुली किताब है। जिसके प्रत्येक पन्ने पर मौलिक अधिकारों और मौलिक कर्तव्यों के कारण उत्पन्न हुई चुनौतियों के संघर्षों की मोहर लगी हुई है। जिनमें अधिकतर मौलिक कर्तव्यों के उत्तरदायित्वों के समाधान हेतु स्पष्ट वर्णन है। उन चुनिंदा चुनौतियों में शिक्षक, डॉक्टर, प्रोफेसर, कल्चरल अकादमियां, शिक्षन संस्थान इत्यादि प्रमुख हैं। जिनके अलावा भारत के कतिपय भ्रष्ट अयोग्य मानवीय न्यायाधीश भी हैं। जिनकी अयोग्यता और क्रूरता के आधार पर भारत के माननीय विद्वान मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति श्री डी वाई चंद्रचूड़ जी भी प्रश्नों के समाधान हेतु "कटघरे" में खड़े हैं। जो मेरे साठ वर्षों के निरंतर संघर्ष का प्रतीक ही नहीं बल्कि सौभाग्यवर्द्धक प्रतिफल है। जो अद्भुत, अद्वितीय, अकल्पनीय, अविश्वसनीय अंतरराष्ट्रीय स्तर का कड़वा सच है।
जिसके कारण मुझे अपनी प्राणों से प्रिय सुशील धर्मपत्नी श्रीमती सुशीला बाली से अलग होना पड़ा है। जिसने असहनीय प्रसवपीड़ा को सहन करते हुए मुझे दो होनहार विवेकपूर्ण विद्वान बच्चे दिए हुए हैं। जिसके लिए मैं उसका हार्दिक ऋणी हूॅं। उसके बावजूद उन के प्रति अपने मौलिक कर्तव्यों का मैं पालन नहीं कर सका था। जिसके कारण उन्हें पारिवारिक प्रेम से वंचित होना पड़ा। क्योंकि मेरे बेटे तरुण बाली ने अपनी योग्यता के आधार पर सैनिक स्कूल नगरोटा की निर्धारित परीक्षा को उत्तीर्ण किया था। जिसमें सौभाग्यवश भारीभरकम शुल्क देकर उसे दाखिल भी करवा दिया था। जहां उसने वार्षिक परीक्षा में प्रथम स्थान प्राप्त किया था। परन्तु दुर्भाग्यवश सैनिक स्कूल नगरोटा का निर्धारित वार्षिक शुल्क देने में मैं सामर्थ्य नहीं था। जिसके कारण उसे स्कूल से निकालना पड़ा था। चूंकि मेरे एसएसबी विभाग ने कानूनों का उल्लंघन करते हुए मुझे नौकरी से बर्खास्त कर दिया था और समाचारपत्र विक्रेता के रूप में सैनिक स्कूल नगरोटा में पढ़ाना मेरे बस में नहीं था। जिसके आधार पर मुझे अपने बेटे को सैनिक स्कूल नगरोटा से आर्थिक अभाव के कारण निकालना पड़ा था। जिसके कारण मेरा बेटा समसमायिक समय के इंजीनियरिंग क्षेत्र का बेताज बादशाह होते हुए भी मुझसे घृणा करता है। चूंकि मैं राष्ट्रीय मौलिक कर्तव्यों से जूझते हुए पिता के रूप में बेटे के प्रति अपने मौलिक कर्तव्यों की पूर्ति नहीं कर पाया था अर्थात उसकी सैन्य स्कूल नगरोटा की पढ़ाई का शुल्क नहीं दे सका था। जिससे उसकी सैन्य अधिकारी बनने की इच्छा मेरे राष्ट्रीय मौलिक कर्तव्यों की भेंट चढ़ गई थी। जिसके लिए मैं क्षमा प्रार्थी होते हुए भी "क्षमा के योग्य" नहीं हूॅं। क्योंकि मैं राष्ट्रहित में अपने संवैधानिक मौलिक कर्तव्यों की पूर्ति हेतु अपने बेटे के साथ साथ उसकी माताश्री के सम्पूर्ण जीवन को बर्बाद कर चुका हूॅं। जिसके लिए उनके दृष्टिकोण के अंतर्गत मैं अक्षम्य दोषी हूॅं। चूंकि मैं अपने राष्ट्रप्रेम की पूर्ति हेतु उसकी माताश्री के विवाहिक जीवन को भी सुखमय नहीं बना सका था। जिसका अटल सत्य यह भी है कि यौवन लौटाया नहीं जा सकता। जिसके लिए मैं हृदय तल से क्षमा प्रार्थी होते हुए भी इस जन्म में कदापि क्षमा के योग्य नहीं बन सकता हूॅं। क्योंकि भले ही राष्ट्रीय मौलिक कर्तव्यों की तुला में मेरे राष्ट्रीय मौलिक कर्तव्यों की चुनौतियों से परिपूर्ण तुलनात्मक मेरा पलड़ा भारी है। परन्तु उसी तुला के दूसरे पलड़े के कड़वे सच को भी नकारा नहीं जा सकता। जिसमें मेरी धर्मपत्नी और बच्चों को उनके मानवीय मौलिक अधिकार भी नहीं मिले। मेरी धर्मपत्नी और बच्चे एक-एक रुपए के लिए तरसते रहे। क्योंकि राष्ट्रीय मौलिक कर्तव्यों की पूर्ति हेतु मैं निरंतर संघर्षरत रहा था। जिसके कारण मैं अपने मौलिक अधिकारों से वंचित रहा। जिसके आधार पर मैं अपनी धर्मपत्नी के प्रति अपने मौलिक कर्तव्यों के पालन में पूरी तरह चूक गया था। अर्थात अपनी प्राणप्रिया धर्मपत्नी श्रीमती सुशीला बाली के प्रति न्याय नही कर पाया था। जिसके लिए मैं सार्वजनिक ही नहीं बल्कि माननीय जम्मू और कश्मीर और लद्दाख उच्च न्यायालय में दायर विभिन्न याचिकाओं में स्पष्ट मान रहा हूॅं कि मैं अपनी अर्धांगिनी के विवाहिक मौलिक अधिकारों को पूरा न कर पाने का स्पष्ट दोषी हूॅं। यही नहीं मैं अपने छोटे से परिवार को उनके पारिवारिक मौलिक अधिकार भी नहीं दे सका था। जिसके लिए मेरे साथ साथ माननीय उच्च न्यायालय के संबंधित न्यायाधीश भी सम्पूर्णतः दोषी हैं। जिसके साक्षी मेरे और मेरे पारिवारिक सदस्यों की ऑंखों से निरंतर बहते ऑंसू हैं। जिनका संबंध सीधे परमेश्वर से जुड़ा होता है।
परमसत्य यह भी है कि विद्वान अधिवक्ताओं, कवियों, पत्रकारों, कहानीकारों एवं पद्मश्री पुरस्कार से सम्मानित साहित्यकारों ने भी हमारी बर्बादियों का तमाशा अपनी खुली ऑंखों से देखा है। जिसके लिए मेरे साथ साथ वो सब भी हमारी बर्बादियों के दोषी प्रमाणित होंगे। क्योंकि मुझे तो मेरे विभाग सहित तत्कालीन माननीय जम्मू और कश्मीर उच्च न्यायालय के अयोग्य न्यायाधीशों ने क्षय रोग के स्थान पर मानसिक रोगी घोषित कर दिया था। जिसका उल्लेख तत्कालीन पद्मश्री सम्मान से सम्मानित पत्रकारों और साहित्यकारों से सहायता करने हेतु मैंने विनम्रतापूर्वक अनेकों बार आग्रह भी किया था। जिनमें से मात्र हिन्द समाचार पत्र समूह के आदरणीय मुख्य सम्पादक पद्मश्री विजय चोपड़ा जी ने मुझे अवेतनिक पत्रकार के रूप में ज्यौड़ियां में नियुक्त किया था और समाचारपत्र एजेंसी देकर मेरी सहायता भी की थी। परन्तु उनके अलावा उपरोक्त साहित्य अकादमी पुरस्कार एवं पद्मश्री पुरस्कार से सम्मानित "साहित्यकारों" ने अपने विवेक, बुद्धि, ज्ञान और विद्वता के प्रकाश को मेरी सहायतार्थ प्रकाशमान नहीं किया था। इसलिए वह भी अपने मौलिक कर्तव्यों की पूर्ति न कर पाने के दोषी हैं। जिन्हें मौलिक कर्तव्यों की पूर्ति न करने की दोषसिद्धि हेतु माननीय न्यायालय के कटघरे में खड़ा करना अतिआवश्यक है। जो मेरा मौलिक अधिकार ही नहीं बल्कि न्यायिक मौलिक कर्तव्य है। जिससे जम्मू कश्मीर भाषा, कला एवं संस्कृति के वर्तमान मुख्य सम्पादक आदरणीय डॉ रत्न बसोत्रा जी भी अछूते नहीं हैं। जो वर्तमान समय में भी सहयोगियों द्वारा समझाने के बावजूद अपनी कुटिल मनमानी पर रोक नहीं लगा रहे हैं और अपने ही कर्मठ सचिव श्री भरथ सिंह मन्हास जी को बदनाम करने पर तुले हुए हैं। जिससे उनका अहंकार सार्वजनिक हो रहा है और इतिहास साक्षी है कि महा विद्वान सोलह कला संपन्न लंकापति राजा रावण भी अहंकार की भेंट चढ़ा था। संभवतः डॉ रत्न बसोत्रा भूल रहे हैं।
जबकि उनके सहयोगी अर्थात सह सम्पादक श्री यशपाल निर्मल जी मेरी उपरोक्त सभी व्यथाओं के साक्षी हैं। चूंकि उन्हीं गौरवान्वित मौलिक कर्तव्यों की कसौटी पर खरे उतरने हेतु श्री यशपाल निर्मल जी के साथ मैंने समाचार पत्र बेचे थे। जिसकी कमाई से मैंने अपने पेट की अग्नि को शांत किया था। इसके अलावा यशपाल निर्मल की शिक्षा पूर्ति में भी मैं सहायक सिद्ध हुआ था। क्योंकि उनके शिक्षा संबंधित कार्यों में व्यस्त होने पर मैं उनके लिए समाचार एकत्रित करता था। जिसके लिए उन्हें जागरण संवाददाता के नाम पर वेतन मिलता था। जिसके उपरांत श्री यशपाल निर्मल सच के स्थान पर काल्पनिक साहित्य लेखन में व्यस्त हो गए। जिसके फलस्वरूप अनुवादक के रूप में उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला। परन्तु यह भी परम सत्य है कि यद्यपि श्री यशपाल निर्मल मेरे बारे में लिखते तो आज उन्हें ज्ञानपीठ पुरस्कार से पुरस्कृत होने की कार्यवाही हो रही होती। क्योंकि जिन ऊंचाइयों को छूना स्वप्न माना जा रहा था। आज मैं उन्हीं बुलंदियों पर पहुंच चुका हूॅं। जो मेरा सौभाग्य बनकर उभर रहा है। जिसे श्री यशपाल निर्मल जी सिरे से नकार चुके थे।
परन्तु मेरा दुर्भाग्य देखिए कि श्री यशपाल निर्मल के सह सम्पादक होते हुए भी कल्चरल अकादमी के मुख्य सम्पादक आदरणीय डॉ रत्न बसोत्रा जी मुझे नकारात्मक लेखक की संज्ञा देते रहे। इसके अलावा विभिन्न पहलुओं के आधार पर आयोजित कार्यक्रमों में मुझे बुक भी नहीं किया जाता था। खुले शब्दों में बोलूं तो मेरा तिरस्कार भी किया जाता था। कभी कभी तो श्री यशपाल निर्मल जी मेरे आमंत्रित पत्र को अपनी "भूल" की भेंट चढ़ा देते थे। लेकिन कहते हैं कि मारने बालों से बचाने वाला बड़ा होता है। जिस कहावत को चरितार्थ करते हुए हिंदी की सम्पादक आदरणीय श्रीमती रीटा खड़याल जी ने मेरी ग़ज़लों के आधार पर मुझे प्रोत्साहित करना आरम्भ कर दिया था। जबकि डॉ रत्न बसोत्रा निरंतर विरोध करने का असफल प्रयास करते रहे। यहां तक कि कुछ समय पहले उन्होंने जम्मू कश्मीर कल्चरल अकादमी के मंच पर भी अपने चहेते द्वारा मेरा सार्वजनिक अपमान करवाया था। जो श्री यशपाल निर्मल जी के भी ऑंखों के तारे हैं। जिसकी क्षतिपूर्ति हेतु मैं माननीय उच्च न्यायालय में चुनौती देने वाला था। परन्तु अपने कर्तव्यों के प्रति सदैव निष्ठावान, सशक्त एवं कर्मठ सचिव आदरणीय श्री भरथ सिंह मन्हास जी ने उक्त मामले में निष्पक्ष हस्तक्षेप करते हुए कड़े कदम उठाए थे। जिनमें निरुत्तर होकर मुख्य सम्पादक डॉ रत्न बसोत्रा जी ने क्षमा मांग ली थी। जिस पर मैंने अपने मान की क्षतिपूर्ति हेतु माननीय न्यायालय का दरवाजा नहीं खटखटाने का उन्हें विश्वास दिया था।
जबकि दुर्भाग्यवश संभवतः डॉ रत्न बसोत्रा जी को अपनी क्षमायाचना की पीड़ा से मुक्ति नहीं मिली थी। जिसके दुर्भावनावश, ईर्ष्यायुक्त और द्वेष के कारण उन्होंने जानबूझकर कल्चरल अकादमी द्वारा आयोजित 08-06-2023 से 09-06-2023 तक के दो दिवसीय सम्मेलन में मुझे बुक नहीं किया था। जिसके विरोधाभास में मैंने कल्चरल अकादमी के आदरणीय सचिव श्री भरथ सिंह मन्हास जी को अवगत कराया था और उनसे कार्यक्रम में बुक न करने का ठोस कारण पूछा था। जिसपर आदरणीय सचिव श्री भरथ सिंह मन्हास जी ने तुरन्त विभागीय कार्रवाई करते हुए डॉ रत्न बसोत्रा जी को मुझे बुक करने के साथ साथ सादर आमंत्रित करने का भी आदेश दिया था। हालांकि उक्त सूचना आदरणीय सचिव श्री भरथ सिंह मन्हास जी ने स्वयं देकर मुझे कृतार्थ किया था। जिससे उनका मौलिक कर्तव्यों के प्रति निष्ठापूर्वक निर्वहन प्रमाणित होता है। जिसके लिए मैं सदैव उनका आभारी रहूंगा। जबकि उक्त आदेश के लिए डॉ रत्न बसोत्रा जी ने मुझे सूचित एवं आमंत्रित करने हेतु सह सम्पादक आदरणीय श्रीमती रीटा खड़याल की ड्यूटी लगाई थी। जो एक प्रकार से आदरणीय सचिव श्री भरथ सिंह मन्हास जी के आदेश का उल्लंघन ही नहीं बल्कि अपमान था। क्योंकि उन्होंने डॉ रत्न बसोत्रा की ड्यूटी इसलिए लगाई थी कि उससे हमारे बीच घृणा की दीवार ढह जाए। परन्तु हुआ इसके विपरीत चूंकि इससे डॉ रत्न बसोत्रा जी का अहम सातवें आसमान पर पहुंच गया। जिसे धरा पर लाने के लिए संवैधानिक प्रश्न यह उठा है कि मुख्य सम्पादक डॉ रत्न बसोत्रा जी की दुस्साहसपूर्ण मनमानी की मानसिकता पर अंकुश कौन और कैसे लगाएगा? चूंकि प्रत्येक लेखक अकादमी के सचिव श्री भरथ सिंह मन्हास जी के पास नहीं पहुंच सकता और हर कोई लेखक अपने स्वाभिमान के चलते उक्त कार्यक्रम में मात्र 1350 रुपए में बुक होने के लिए भी अपना सर्वस्व दांव पर नहीं लगा सकता। जिसके आधार पर बहुत से उत्कृष्ट लेखक अनेक आयोजनों में डॉ रत्न बसोत्रा की मनमानी एवं द्वेषपूर्ण व्यवहार की भेंट चढ़ जाते हैं और कार्यक्रम में भाग लेने से वंचित रह जाते हैं। जिसके कारण मैं सार्वजनिक पटल पर लिखने के बाध्य हुआ हूॅं। जिसके लिए भले ही मुझे पुनः बुक न करने से लेकर संवैधानिक चुनौतियों का ही सामना क्यों न करना पड़े? क्योंकि सत्य को सार्वजनिक करना मेरा उद्देश्य बन चुका है जिसके लिए मैं किसी भी दण्ड के लिए हृदय तल से तैयार बैठा हूॅं। चूंकि राष्ट्र सर्वोपरि है।
उल्लेखनीय है कि 08-06-2023 से 09-06-2023 के दो दिवसीय सम्मेलन में डॉ रत्न बसोत्रा जी द्वारा जानबूझकर कुछ लेखकों को बुक नहीं किया गया था। जिनमें से कुछ लेखक अपने संवैधानिक मौलिक अधिकारों को मांगने से अधिक छीनने की मानसिकता को प्राथमिकता देते हैं। जिसके फलस्वरूप अपना कौशल दर्शाते हुए वे आदरणीय सचिव श्री भरथ सिंह मन्हास जी के कार्यालय में व्यक्तिगत रूप में उपस्थित हुए और अपनी लिखी पुस्तकों को साक्ष्यों के रूप दर्शाया था। इसके अलावा उन्होंने अपने सरकारी ऊंचे पद के व्याख्यान सहित अपने सशक्त व्यक्तित्व का परिचय भी दिया था। जिसके आधार पर सचिव श्री भरथ सिंह मन्हास जी ने प्रभावित होकर शिकायतकर्ताओं की शिकायत को गंभीरता से लिया और उन्हें विश्वास दिलाया कि आगामी आयोजनों में उन्हें शिकायत का अवसर नहीं मिलेगा। चूंकि आगामी आयोजनों पर वह विशेष रूप से स्वयं ध्यान देंगे। उन्होंने कल्चरल अकादमी की ओर से यह भी विश्वास दिलाया कि यदि आगे कोई गड़बड़ी होगी तो वह सूचियां अपनी निगरानी में सूचीबद्ध करवाएंगे। जिससे अकादमी में व्याप्त धांधलियों पर अंकुश लगना आरंभ हो जाएगा। जो चापलूसी और भ्रष्टाचार की समाप्ति के सुनहरे भविष्य की ओर संवैधानिक संकेत करता है।
उल्लेखनीय है कि अकादमी का अब तक किसी भी लेखन क्षेत्र में प्रतिस्पर्धात्मक कोई ठोस क्राइटेरिया (CRITERIA) अर्थात मापदंड निर्धारित नहीं है। जिसके अंतर्गत वर्षों से कोई पुस्तकों की गुणवत्ता से अधिक अपनी पुस्तकों की संख्या के आधार पर अहंकार कर रहा है। तो कोई साहित्यिक संस्थाओं का अध्यक्ष एवं अपने आप को प्रोफेसर, निदेशक, अधिकारी, डॉक्टर इत्यादि कहते हुए अभिमान कर रहा है। जिसके कारण वे मात्र अपनी रचना पढ़ने और मंचासीन होने के लिए ही कार्यक्रमों में आते हैं। जिसके बाद वह वहां से नौ दो ग्यारह हो जाते हैं। जिसके प्रमाण को खाली कुर्सियां प्रमाणित करती हैं। जबकि लेखक का धर्मक्षेत्र "शब्दों" से मापा जाता है। उसकी लेखनकला और लेखनीय सामाग्री पर आधारित ज्ञान पर निर्भर करता है।
उल्लेखनीय है कि "ज्ञान" शिक्षा की उच्च स्तरीय उपाधियों का दास नहीं है। जबकि इस सत्य को भी झुठलाया नहीं जा सकता कि शिक्षा की उपाधियों से "ज्ञान" को मात्र बढ़ावा मिल सकता है। परन्तु ज्ञानी नहीं बनाया जा सकता। जो वर्तमान समय में प्राप्त उच्च स्तरीय उपाधियां शिक्षा पर खर्च किए गए धन की प्रमाणित पावती (रसीद) से अधिक कुछ नहीं हैं।
जैसे कि कल्चरल अकादमी जम्मू द्वारा जम्मू संभाग के अग्रणी लेखकों को तिलांजलि देकर कश्मीर संभाग के विशेष विद्वान लेखकों को वायुयान का किराया देते हुए आमंत्रित किया गया था और अकादमी के मुख्य सम्पादक आदरणीय डॉ रत्न बसोत्रा जी द्वारा उन्हें सम्मानित मंच पर आसीन भी किया गया था। जिनके लिए मेरे मन में उनकी अपार शैक्षणिक योग्यता का भ्रम उत्पन्न हुआ था। जिसके आधार पर मैंने अपनी रचना का श्रीगणेश करते समय उपरोक्त महानुभावों से प्रश्न किए और उनसे अध्यक्षीय संबोधन में सार्वजनिक उत्तर पाने की अभिलाषा भी व्यक्त की थी। हालांकि प्रश्न सम्पूर्णतः हिंदी भाषा और जम्मू कश्मीर संघ अर्थात केंद्र शासित प्रदेश के हिंदी भाषी विद्वानों के साथ हो रहे भेदभाव पर आधारित था। जिसे मैंने पहले भी अपने आलेखों के माध्यम से कई बार दोहराया है? जबकि अपनी नौ स्वप्रकाशित पुस्तकों में से एक शुद्ध हिंदी ग़ज़ल की पुस्तक "राष्ट्र के नाम संदेश" आदरणीय डॉ सतीश विमल जी को सादर भेंट करते हुए भी उनसे बार बार प्रश्न पूछा था कि स्वातंत्र्योत्तर आजादी के अमृत महोत्सव तक अर्थात पचहत्तर वर्षों में साहित्य अकादमी दिल्ली द्वारा जम्मू कश्मीर राज्य अर्थात केंद्र शासित प्रदेश के विद्वान लेखकों में से हिंदी भाषा के विकास एवं समृद्धि हेतु साहित्य अकादमी दिल्ली द्वारा "हिंदी परामर्श बोर्ड" के लिए अब तक एक भी सदस्य क्यों चयनित नहीं किया गया?
जिसके आधार पर प्रश्नचिह्न स्वाभाविक हैं कि क्या जम्मू और कश्मीर के असंख्य हिंदी प्रोफेसरों सहित अनेक गणमान्य राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त हिंदी लेखक अयोग्य थे या हैं? जबकि यहां भ्रष्टाचार पर आधारित विश्व की सबसे लम्बी ग़ज़ल का कीर्तिमान स्थापित करने वाले भी सभागार में विराजमान थे। तथापि हमारे बीच से साहित्य अकादमी दिल्ली द्वारा हिंदी परामर्श बोर्ड का कन्वीनर तो छोड़ो कोई सदस्य भी क्यों नहीं बनाया गया? विशेषकर अब तो निडर हस्ताक्षर माननीय गृह मंत्री श्री अमित शाह जी और अद्वितीय उदाहरण प्रस्तुत करते हुए सशक्त प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र दामोदरदास मोदी जी ने जम्मू कश्मीर की विशेष धारा 370 को समाप्त भी कर दिया है। जिसके आधार पर जम्मू कश्मीर को भारत का अभिन्न गौरवान्वित प्रदेश बना दिया है। जिसमें उन्होंने हमे सम्पूर्ण भारतीय अधिकारों से ओतप्रोत कर दिया है। जिसके लिए जम्मू कश्मीर का राष्ट्रभक्त समुदाय सदैव उनका आभारी रहेगा।
चूंकि उन्होंने भारत, भारतीय और भारतीयता की बाधक लोहे की जंजीर नामक धारा 370 से जम्मू कश्मीर के नागरिकों को हमेशा के लिए मुक्त कर दिया है। जिन्होंने एक ओर न्याय के प्रति जागरूक महामहिम राष्ट्रपति श्रीमती द्रौपदी मुर्मू जी को देश का राष्ट्रपति बनाया और दूसरी ओर देशवासियों हेतु न्यायव्यवस्था सुधारने के लिए न्यायमूर्ति श्री डी वाई चंद्रचूड़ जी को भारत का मुख्य न्यायाधीश बना दिया है। जिन्होंने न्यायिक सुधार हेतु अपने पिताश्री अर्थात माननीय उच्चतम न्यायालय के माननीय पूर्व मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति श्री यशवंत विष्णु चंद्रचूड़ जी के आदेश को पलटने का साहस दिखाया है। ऐसे में माननीय गृह मंत्री श्री अमित शाह और प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी जी के कार्यकाल में संस्कृति मंत्रालय के माननीय विद्वान मंत्री श्री जी. किशन रेड्डी जी के नेतृत्व में जम्मू और कश्मीर के हिंदी लेखकों के साथ साहित्य अकादमी दिल्ली भेदभाव कैसे कर सकती है?
इसके बावजूद मंचासीन आदरणीय डॉ सतीश विमल जी और डॉ अग्निशेखर जी ने अपनी अयोग्यता का सार्वभौमिक प्रदर्शन करते हुए मेरे यक्ष प्रश्न के समाधान हेतु "उत्तर" तो क्या अपने अध्यक्षीय संबोधन में मेरा नाम भी लेना उचित नहीं समझा। जिसका के. एल. सैहगल सभागार में उपस्थित विद्वानों द्वारा प्रतिक्रिया मांगने पर भी कोई उत्तर नहीं दिया था। जो उन दोनों की अयोग्यता का प्रमाण ही नहीं बल्कि मंचासीन वरीयता पद क्रम (प्रोटोकॉल्स) का भी उल्लंघन था। चूंकि पूछे गए प्रश्नों पर "उत्तर लेना" हमारा मौलिक अधिकार और "उत्तर देना" उनका मौलिक कर्तव्य था।
जिस पर आदरणीय डॉ सतीश विमल जी एवं डॉ अग्निशेखर जी के ज्ञान के चक्षुओं को खोलने हेतु सार्वजनिक बताना नैतिकता के आधार पर अत्यन्त आवश्यक ही नहीं बल्कि महत्वपूर्ण मानता हूॅं कि आप पिछले कई दशकों से विस्थापन के साहित्य द्वारा अपना रोना रो रहे हो। जबकि हमने भी अपने विस्थापन वाले घर को मनमस्तिष्क से नहीं निकाला है। क्योंकि हमने भी जन्म लेने के तीन वर्षों में ही 1965 और उसके उपरांत 1971 को पाकिस्तान द्वारा छेड़े युद्धों का दंश झेला है और सरकार द्वारा दी गई रेतीली जमीन पर हर वर्ष मात्र खर्च कर रहे हैं। जबकि हम भी भारतीय हैं और अपने संवैधानिक अधिकारों के प्रति जागरूक भी हैं। उसके बावजूद हमने अपनी पैतृक संपत्ति/जमीन (मनावर) खोकर "समाचार-पत्र" बेचकर अपने पापी पेट को भरा है। इससे भी भयंकर पीड़ा केंद्रीय गृह मंत्रालय के एसएसबी विभाग ने हमें दी थी जब डॉक्टरों द्वारा घोषित तपेदिक रोग में उन्होंने मेरे वेतन भत्तों को रोकने का मुझे निरापराध दण्ड दिया था। जिस दण्ड को उस समय भी भोगा था और उसके अवशेषों को मेरे साथ साथ मेरा पूरा परिवार आज भी भोग रहा है। जो राष्ट्रहित में राष्ट्र को समर्पित हैं।
अब रही बात लेखन की तो मैंने भी बाल्यकाल से लिखना आरम्भ किया हुआ है और 1980 में जनरल आडिटर श्री मुहम्मद यूसुफ टेंग की छत्रछाया में सम्पादक श्री ओम गोस्वामी जी के नेतृत्व में डोगरी शीराज़ा में "नमियां कलमा" नामक युवा अंक के पृष्ठ 75 पर "ब्हादर माह्नु बाडर दे" नामक डोगरी भाषा में अपनी कविता प्रकाशित कर लेखक होने का शंखनाद कर चुका हूॅं। ऐसे बहुत से शीराज़ा इसके साक्षी हैं। जिन शीराज़ाओं में फरवरी-मार्च 1989 के ग़ज़ल अंक में पृष्ठ 85-86 पर प्रकाशित मेरी दो ग़ज़लें मुझे ग़ज़लकार घोषित कर रही हैं। जिनके बावजूद आपके पास बैठे मुख्य सम्पादक आदरणीय डॉ रत्न बसोत्रा जी के बहकावे में आकर आपने मुझे बच्चा समझते हुए मेरे साहित्यिक प्रश्न का उत्तर देना भी उचित नहीं समझा। यहां तक कि आपको मेरे सफ़ेद बाल भी दिखाई नहीं दिए। डॉ सतीश विमल और डॉ अग्निशेखर जी ध्यान रहे उपरोक्त उपहास को "बुद्धिमानी" नहीं "मूर्खता" की विडंबना कहा जाता है। जिसके आधार पर आपको साधुवाद नहीं दिया जा सकता। चूंकि आपने अपनी साहित्यिक अयोग्यता को छुपाने का अथक प्रयास किया है। जिसके अंतर्गत मुझे अपमानित करने की समस्त सीमाएं आप लांघ चुके हैं। जिससे इस भेद का भी पर्दाफाश हो चुका है कि आप अपनी योग्यता के आधार पर मंचासीन नहीं हुए थे। बल्कि डॉ रत्न बसोत्रा जी की कृपादृष्टि मात्र से मंच पर सुशोभित हुए थे। अन्यथा जम्मू संभाग के कई प्रतिष्ठित लेखिकाएं/लेखक सभागार में विराजमान थे। आदरणीय डॉ सतीश विमल जी और डॉ अग्निशेखर जी मेरे यक्ष प्रश्न पर आपकी चुप्पी बहुत कुछ स्पष्ट कर गई है। स्पष्ट यह भी हो गया है कि बहुत सी साहित्यिक संस्थाओं के सुयोग्य साहित्यकारों को आमंत्रित क्यों नहीं किया जाता और वह कल्चरल अकादमी के कार्यक्रमों में भाग लेने सभागार में क्यों नहीं आते? यह भी पता चल गया कि अध्यक्षीय भाषण के उपरांत वरीयता पद क्रम का उल्लंघन करते हुए पुंछ के साहित्यकार डॉ लियाकत शाह क्यों मंच पर बोलने चले गए थे। हालांकि उनको रोकने के लिए मेरे पूज्य वरिष्ठ लेखक प्रोफेसर अशोक गुप्ता जी भी उन्हें रोकने का हार्दिक प्रयास करते रहे थे। यह सब आपको विनम्रतापूर्वक मनन एवं मूल्यांकन हेतु हृदय तल आवेदन कर रहा हूॅं। ताकि शून्य की परिधि में आप मंथन कर सकें कि आपने साहित्य को क्या साहित्यिक पीड़ा दी है?
अतः उपरोक्त महानुभावों द्वारा दी गई मानसिक पीड़ाओं से क्षुब्ध होकर अपने उक्त मौलिक अधिकारों को प्राप्त करने हेतु संभवतः शीघ्र ही संकेतिक धरना प्रदर्शन किया जाएगा और उसके उपरांत माननीय जम्मू और कश्मीर और लद्दाख उच्च न्यायालय या केंद्रीय प्रशासनिक प्राधिकरण में याचिका दायर कर चुनौती दी जाएगी। चूंकि मैं चापलूस साहित्यकार नहीं हूॅं और न ही तथाकथित अखिल भारतीय चापलूस लेखकों की सूची में सूचीबद्ध हूॅं। जो मुख्य सम्पादक श्री रत्न बसोत्रा जी जैसे वैतनिक मूल दायित्व के निर्वहन हेतु उन्हें साधुवाद देते हुए अपने सिर पर बिठा लेते हैं। जिसके लिए सरकार उन्हें प्रति माह भारीभरकम वेतन देती है। जिसे देश के समस्त नागरिकों से कर (टेक्स) के रूप में बसूला जाता है। जिसके लिए आदरणीय सचिव श्री भरथ सिंह मन्हास जी को स्वतः संज्ञान लेना चाहिए और विभागीय जांच कर कार्रवाई करनी चाहिए। उन्हें मूल्यांकन करना चाहिए कि जम्मू संभाग के सक्षम रचनाकारों का तिरस्कार क्यों किया जा रहा है? जबकि प्रश्न यह भी है कि स्थानीय लेखकों को मात्र ₹ 1350 के अल्प शुल्क में भी बुक क्यों नहीं किया जाता? क्या वास्तव में समय की इतनी कमीं है कि आमंत्रित कवियों को निःशुल्क भी कविता न पढ़ने दी जाए? क्या यह आमंत्रित कवियों का उपहास नहीं है? ऐसी परिस्थितियों में भारतीय सभ्यता और संस्कृति के साथ साथ माता सरस्वती का भी उपहास क्यों उड़ाया जा रहा है? हालांकि प्रश्न सम्पूर्णतः गंभीर है कि जम्मू संभाग के कितने लेखकों को अब तक कश्मीर संभाग में वायुयान का किराया देकर कश्मीर भेजा गया है? स्वातंत्र्योत्तर से लेकर आज़ादी के अमृत महोत्सव तक अर्थात पचहत्तर वर्षों में कितने आर्थिक अशक्त लेखकों को पुस्तक प्रकाशित करने हेतु सब्सिडी दी गई है? क्यों मुख्य सम्पादक आदरणीय डॉ रत्न बसोत्रा जी पत्रवाचन के लिए अकादमी हेतु लेखकों से निशुल्क पुस्तकों की मांग कर रहे हैं? यक्ष प्रश्न स्वाभाविक है कि एक ओर जम्मू और कश्मीर कल्चरल अकादमी सभी लेखकों को सब्सिडी नहीं देती तो दूसरी ओर अकादमी बिना सब्सिडी प्राप्त करने वाले लेखकों से निशुल्क पुस्तक कैसे मांग सकती है? अर्थात लेखकों द्वारा अपने पैसों से प्रकाशित पुस्तकों में से मात्र एक पुस्तक खरीदने में अकादमी क्यों सक्षम नहीं है? क्या जम्मू कश्मीर कल्चरल अकादमी भिक्षुक का रूप धारण कर भिक्षावृत्ति पर निर्भर हो चुकी है?
अंततः मेरा अकादमी के आदरणीय सचिव श्री भरथ सिंह मन्हास जी, केंद्र शासित प्रदेश जम्मू और कश्मीर के माननीय उपराज्यपाल श्री मनोज सिन्हा जी, संस्कृति मंत्रालय के माननीय मंत्री श्री जी. किशन रेड्डी जी, माननीय गृह मंत्री श्री अमित शाह जी, अंतरराष्ट्रीय सशक्त हस्ताक्षर माननीय प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी जी, भारत के माननीय विद्वान मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति श्री डी वाई चंद्रचूड़ जी और देश की न्यायप्रिया माननीय महामहिम राष्ट्रपति श्रीमती द्रौपदी मुर्मू जी कृपया मेरे यक्ष प्रश्नों के उत्तर देते हुए मेरी जिज्ञासा शांत करें और सादर बताएं कि स्वातंत्र्योत्तर आजादी के अमृत महोत्सव तक अर्थात पचहत्तर वर्षों में साहित्य अकादमी दिल्ली द्वारा हिंदी परामर्श बोर्ड में जम्मू और कश्मीर केंद्र शासित प्रदेश से हिंदी भाषा के विकास एवं समृद्धि हेतु एक एक बार भी कन्वीनर या सदस्य क्यों मनोनीत नहीं किया गया? सम्माननीयों जय हिन्द
प्रार्थी
इंदु भूषण बाली
व्यक्तिगत रूप से याचिकाकर्ता (पिटीशनर इन पर्सन)
वरिष्ठ लेखक व पत्रकार, राष्ट्रीय चिंतक, स्वयंसेवक, भ्रष्टाचार के विरुद्ध विश्व की लम्बी ग़ज़ल, राष्ट्रभक्ति एवं मौलिक कर्तव्यों के नारों में विश्व कीर्तिमान स्थापितकर्ता
एवं
भारत के राष्ट्रपति पद का पूर्व प्रत्याशी,
वार्ड अंक 01, डाकघर व तहसील ज्यौड़ियां, जिला जम्मू, केंद्र शासित प्रदेश जम्मू और कश्मीर, पिनकोड 181202।