जी हॉं, आपने उचित समझा है। मैं उन्हीं की बात कर रहा हूॅं जिन्होंने जीवनभर जम्मू कश्मीर कला संस्कृति एवं भाषा अकादमी की सेवा कर अपना स्वार्थसिद्ध किया, वह बताते नहीं थकते कि उन्होंने दिन-रात लेखकों की सेवा की है। ऐसे तथाकथित विद्वान साहित्यिक सेवकों ने किसी का स्वार्थवश सम्मान और किसी का तिरस्कार किया है अर्थात उनके अनमोल साहित्य से खिलवाड़ तक किया है। जिसके बहुत से विद्वान साक्षी भी हैं अर्थात उक्त साहित्यकारों द्वारा दूसरों के अनमोल साहित्य में सेंध मारने एवं अपने आपको महाविद्वान सिद्ध करने के अथक प्रयास के बावजूद उन दुर्भाग्यशालियों को अपनी जीवन यात्रा के अन्तिम पड़ाव में "ज्ञानपीठ पुरस्कार" तो क्या अभी तक "पद्म पुरस्कार" भी प्राप्त नहीं हो सका है?
चूॅंकि साहित्य अकादमी दिल्ली कोई मूर्ख संस्थान नहीं है और न ही उसके विद्वान विशेषज्ञ मानसिक रोगी हैं। सत्य तो यह भी है कि वह जानते हैं कि जम्मू और कश्मीर में कौन वास्तविक लेखक हैं और कौन-कौन चाटुकार एवं चापलूस साहित्यकार हैं। वह सब जानते हैं जिसके आधार पर वह चुन चुनकर पद्मश्री पुरस्कार दे रहे हैं जिसमें यह भी सिद्ध हो रहा है कि "एकै साधे सब सधै, सब साधे सब जाय, रहिमन मूलहिं सींचिबो, फूले फलै अघाय" अर्थात रहीम जी कहते हैं कि पहले एक कार्य को पूर्ण करने का प्रयास करना चाहिए और उसके लिए सम्पूर्ण ध्यान देना चाहिए, तभी वह कार्य सम्पन्न होता है जैसे एक पेड़ की जड़ को भली प्रकार सींचने से उसका तना, शाखाऍं, पत्ते, फल-फूल सब हरे-भरे रहते हैं।
परन्तु जम्मू कश्मीर कला संस्कृति एवं भाषा अकादमी जम्मू के के.एल. सहगल सभागार में मैंने देखा कि डोगरी एवं कश्मीरी भाषा के लेखक ही हिन्दी भाषा का प्रचार प्रसार कर रहे हैं और "धोबी का कुत्ता, न घर का न घाट का" की लोकोक्ति को चरितार्थ करते हुए न डोगरी भाषा के प्रख्यात साहित्यकार बन पाए और ना ही हिंदी के साथ न्याय कर सके। और तो और वह मंचासीन होते हुए अपने नाम के पहले साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित साहित्यकार लगाकर अर्ध सत्य का भी प्रदर्शन करते एवं करवाते हैं। जब उपरोक्त कथन के सम्पूर्ण सत्य की जॉंच करने हेतु मंच संचालक/संचालिका अथवा "हिंदी भाषा में साहित्य अकादमी पुरस्कार प्राप्तकर्ता के अर्ध झूठे आधार पर अध्यक्षता करने वालों" से सीधे ही पूछने पर कि हिंदी भाषा में आपको "साहित्य अकादमी पुरस्कार" कब मिला था? तब वह "खिसियानी बिल्ली खंभा नोचे" की लोकोक्ति को चरितार्थ करते हुए बुरा मान जाते हैं और अंततः अकादमी के आयोजकों से शिकायत भी करते हैं।
हालॉंकि कई वयोवृद्ध मित्र साहित्यकारों ने मेरे द्वारा स्पष्ट प्रश्न पूछने पर झेंपते एवं लज्जाजनक साहित्यिक प्रतिक्रिया देते हुए बताया था कि "नहीं मुझे साहित्य अकादमी पुरस्कार हिन्दी में नहीं बल्कि डोगरी अथवा कश्मीरी भाषा में मिला था"। तो प्रश्न स्वाभाविक है कि अर्ध सत्य बोलकर वह श्रोताओं को मतिभ्रम क्यों करते हैं?
स्पष्ट रूप से कहूॅं तो वह श्रोताओं को नहीं बल्कि स्वयं को धोखा देते हैं और अपने ही स्वाभिमान का कचरा करते अथवा करवाते हैं। यही विशेष आधार रहा होगा कि बहुत से वयोवृद्ध लेखक अभी तक पद्मश्री पुरस्कार से सम्मानित नहीं हो सके हैं।
सत्यमेव जयते पर अभिनंदन इस सत्य पर भी किया जा सकता है कि "डोगरी के वरिष्ठ लेखक" कई वयोवृद्ध वरिष्ठतम लेखकों को पछाड़ कर "पद्मश्री" पुरस्कार से सम्मानित हो चुके हैं। जिनका कड़वा सच यह भी है कि वह हिंदी भाषा को भलीभॉंति जानते हुए भी, जम्मू कश्मीर कला संस्कृति एवं भाषा अकादमी द्वारा आयोजित हिंदी भाषी कार्यक्रमों में मंचासीन तो क्या वहॉं "दिखाई" भी नहीं देते हैं। सम्माननीयों जय हिन्द
प्रार्थी
इंदु भूषण बाली
व्यक्तिगत रूप से याचिकाकर्ता (पीटीशनर इन पर्सन)।
वरिष्ठ अंतरराष्ट्रीय लेखक व राष्ट्रीय पत्रकार, राष्ट्रीय चिंतक, आरएसएस का स्वयंसेवक, भ्रष्टाचार के विरुद्ध विश्व की लम्बी ग़ज़ल, राष्ट्रभक्ति एवं मौलिक कर्तव्यों के नारों में विश्व कीर्तिमान स्थापितकर्ता
एवं
भारत के राष्ट्रपति पद का पूर्व प्रत्याशी,
वार्ड अंक 01, डाकघर व तहसील ज्यौड़ियां, जनपद जम्मू, केंद्र शासित प्रदेश जम्मू और कश्मीर, पिनकोड 181202।