जो बना, वह मिटा है। जो जन्मा, वो मरा है। यह प्राकृतिक नियम के प्राकृतिक सौंदर्य का प्राकृतिक सौंदर्यीकरण है। जिसे प्राकृतिक परिवर्तन कहना भी अतिश्योक्ति नहीं है। चूंकि जीवनकाल का आरम्भ मां की डिंबवाहिनी में अंडाणु के साथ पिताश्री के शुक्राणु से निषेचित होकर माताश्री की कोख से होता है। जिसे "भौतिक मां" प्राकृतिक रूप से निर्धारित प्रकृति से संभवतः नौ माह के कार्यकाल में पैदा करती है और संसार में उसे अपने मातृत्व का अमृत पिलाकर स्वयं मातृत्व का सुख प्राप्त करती है। यह भी एक आरंभिक कड़वा सच है। इसलिए बच्चे जीवनभर मां के प्रति प्रायः ऋणी ही रहते हैं।
इसके बावजूद जीवन का मूल उद्देश्य संभवतः जन्म मरण के असहनीय कष्टों से अपने "सुकर्मों" द्वारा मुक्ति पाना होता है। परन्तु दुर्भाग्यवश मानव सांसारिक सुखों में मां की कोख में नौ माह तक नारकीय दिशा और दशा में उल्टा लटकने का ईश्वरीय दण्ड भूल जाता है और भ्रष्टाचार की आधारशिला पर अपने व्यक्तित्व को उजागर करने का असफल प्रयास करता है। वह मानव भूल जाता है कि ईश्वर ने उसे श्वास तक गिनती में दिए हुए हैं और उस गिनती के पूरा होते ही उसे अटल मृत्यु के दर्शन होते हैं। जिससे आज तक कोई नहीं बच सका। जो जन्म से पूर्व ही सुनिश्चित हो चुका होता है। जो जीवन की कड़वी सच्चाई है।
जीवन की कड़वी सच्चाइयों में से एक सच्चाई यह भी है कि जिस प्रकार हम अपनी उपलब्धियों का व्याख्यान करने हेतु ढिंढोरा पीटते हैं, उसी प्रकार क्या हम अपनी काली करतूतों को उजागर करने का साहस कर पाते हैं? मैंने ऐसे कई लेखक जो अपने मौलिक कर्तव्यों की धज्जियां उड़ाते हुए साहित्यिक पुरस्कार प्राप्त होने पर असंख्य "सम्मान समारोह" आयोजित करवाते हुए देखे हैं। जिसके बावजूद वह संतुष्ट एवं शांत नहीं हुए। क्योंकि उन्हें हर क्षण इस बात का डर भी सताता रहता था कि कोई नकारात्मक लेखक उनकी काली करतूतों का काला चिट्ठा न खोल दे। जिसका एक पारदर्शी उदाहरण है कि प्रत्येक व्यक्ति अपनी कुंठित प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए सर्वप्रथम अपने नाम को छुपाने के लिए दूसरे को वचनबद्ध करता है। वह दूसरे से कई बार वचन लेता है कि वह उसका नाम सार्वजनिक नहीं करेगा। जबकि ईश्वर से कुछ भी छिपा नहीं होता है। उनकी दृष्टि से कोई नहीं बच पाता है। इसका ज्ञान दुष्ट आत्माओं को कहां होता है?
एक कड़वी सच्चाई यह भी है कि वर्तमान समय में हम शारीरिक रूप से तो जीवित होते हैं। परन्तु हमारी आत्मा अमर होते हुए भी जीवनभर मृत अवस्था में ही पड़ी रहती है। जिसका उदहारण यह है कि हम सत्य को सत्य और असत्य अर्थात झूठ को झूठ कहने में सक्षम नहीं होते हैं। ऐसे में मृत्यु उपरांत दूसरों द्वारा "ॐ शांति ॐ" लिखने से या उनकी संवेदनाओं से मृत आत्मा को शांति प्राप्त कैसे हो सकती है? विशेषकर उस मानव की आत्मा को जो अपने सम्पूर्ण जीवनकाल में स्वार्थवश सत्य बोलने या लिखने से कतराता रहा है और सम्पूर्ण जीवन में अशांत रहा है। उसके लिए "ॐ शांति ॐ" लिखने मात्र से उसे शांति कैसे मिल सकती है?
क्योंकि सर्वविदित है कि शांति प्रायः सच्चाई प्रकट करने पर, परोपकार करने पर, स्वार्थहीन होने पर, बलिदान देने इत्यादि पर ही मिलती है। जिसमें द्वापर युग के बाल योद्धा "अभिमन्यु" का नाम उदाहरण के रूप में आज भी प्रमुख और सर्वोपरि है। जबकि स्वार्थ के घोड़ों पर सवार समस्त विद्वान योद्धा आज भी कलंकित होते आ रहे हैं। उन्हें आरआईपी या ॐ शांति ॐ से शांति मिल पाना संभव कैसे हो सकता है? जबकि जीवनभर वह कभी अपने आलेखों का उल्लेख, पुस्तकों का लोकार्पण और आगामी पुस्तकों को प्रकाशित करने हेतु साहित्यिक संस्थाओं के संचालकों से विधिवत सब्सिडी अर्थात अनुदान अर्थात राजसहायता मांगने हेतु तलवे चाटने के बावजूद असफलता के कारण विचलित एवं अशांत रहते हैं। चूंकि "अशांति" का मूल आधार "स्वार्थ" है। जिसमें दुर्भाग्यवश मृत्युशय्या पर पड़े विद्वान वरिष्ठतम नागरिक जिनमें प्रोफेसर, डॉक्टर, लेक्चरर, डायरेक्टर और प्राशसनिक सेवा अधिकारी भी प्रमुखता से सम्मिलित हैं। जो अपनी अयोग्यता के कारण भारीभरकम वेतन भत्ते लेने पर भी जीवनभर अपनी इच्छाओं को संतुष्ट एवं शांत नहीं कर पाए।
हालांकि इसी सिक्के के दूसरे पहलू में एक घराटिया, धोबी, समाचारपत्र विक्रेता और मोची इत्यादि समस्त संसारिक लोभ से ऊपर उठकर अपने जीवन से संतुष्ट एवं शांत होते हैं। आप देख सकते हैं कि मोची दूसरों के टूटे जूतों को सिलाई कर सांसारिक एवं सांस्कृतिक सम्पदाओं से सम्पन्न व्यक्तियों से अधिक संतुष्ट एवं शांत होता है। चूंकि वह चाटुकारिता से अधिक अपने परिश्रम को महत्व देता है। क्योंकि परिश्रम से संतुष्टि मिलती है, संतुष्टि से नींद आती है और गहरी नींद से मन मस्तिष्क को शांति प्राप्त होती है। जिसकी पुष्टि हमारे धार्मिक ग्रंथों सहित विज्ञान भी करता है।
अतः माननीयों/सम्माननीयों स्वार्थ एवं चाटुकारिता, ईर्ष्या एवं द्वेषपूर्ण रवैय को त्यागकर सद्भावनापूर्ण जीवित रहते शांति हेतु हृदय तल से प्रयास करें और सत्य को सत्य और झूठ को झूठ बोलकर या लिखकर सशक्त सम्पूर्ण शांति पाएं। क्योंकि यह मृत्युलोक की कर्मभूमि है और कर्मभूमि पर सत्य कर्म और असत्य कर्म ही शांति के लिए निर्णायक भूमिका निभाते हैं। जिनके लिए जीवित रहते हुए नाशवान शरीर के क्षणिक भौतिक सुखों के चक्कर में अपनी अमर आत्माओं की हत्या न करें। अपने अशांत मन मस्तिष्क से मृतकों को शांति पहुंचाने का ढोंग न करें। यह विडंबना की विडंबनाओं की भी परिकाष्ठा है। जिसका सत्य यह भी है कि शांति प्राप्त करने का इससे बड़ा कोई मंत्र या गुरूमंत्र मृत्युलोक में तो क्या ब्रह्माण्ड में भी नहीं है? जिसके आधार पर ध्यान करें और स्वसंज्ञान लेते हुए कठोरतापूर्ण स्वयं से पूछें कि मृत साथी या सगे संबंधी को मृत्यु उपरांत शांति प्रदान करने की ईश्वरीय प्रार्थना करने से पहले क्या आप स्वयं संतुष्ट एवं शांत हैं? सम्माननीयों ॐ शांति ॐ