न्यायिक नपुंसकता और मौलिक कर्तव्यों की चक्की में सिसकते मौलिक अधिकार !
(आलेख)
सत्य केवल उनके लिए ही कड़वा होता है जो झूठ में रहने के आदी हो चुके होते हैं और उन्हें अपने चारों ओर झूठ के अलावा कुछ दिखाई नहीं देता। उस पर भी वह व्यक्तित्व अपनेआप को समाज के महा प्रतिष्ठित और महाविद्वान प्राणियों की श्रेणी में सूचीबद्ध करवाने का सौभाग्य भी प्राप्त कर लेते हैं। परन्तु वह यह भूल जाते हैं कि "झूठ" को कितना भी संवार लें वह "सत्य" के प्रकाश में चुंधिया ही जाता है। ऐसे प्राणियों में कतिपय डॉक्टर, अधिवक्ता और तथाकथित माननीय न्यायाधीश यहां तक की भारत के माननीय मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति श्री डी वाई चंद्रचूड़ जी भी अछूते नहीं हैं। जिनकी न्यायिक नपुंसकता और मौलिक कर्तव्यों की चक्की में सिसकते मौलिक अधिकार चीख चीखकर उन्हें पूछ रहे हैं कि हमारा राष्ट्र "संविधान के अनुसार" कब चलेगा? कब तक पीड़ित प्रताड़ित याचिकाकर्ताओं की झोली में मात्र और मात्र "तारीख पर तारीख" डाली जाएगी? उन्हें न्याय कब मिलेगा? क्यों न्यायिक नपुंसकता और मौलिक कर्तव्यों की चक्की में हमारे मौलिक अधिकार सिसक रहे हैं? क्यों अठाईस वर्षों से समस्त साक्ष्यों को माननीय जम्मू और कश्मीर और लद्दाख उच्च न्यायालय के पटल पर रखने के बावजूद मुझे न्याय नहीं दिया जा रहा? क्यों एक के बाद एक जम्मू और कश्मीर और लद्दाख उच्च न्यायालय का माननीय मुख्य न्यायाधीश भारीभरकम वेतन, भत्ते और अन्य राजसी सुख सुविधाओं को भोगकर भी मेरी याचिकाओं पर संवैधानिक निर्णय नहीं दे रहे? उसपर पहले की भांति वर्तमान माननीय मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति श्री डी वाई चंद्रचूड़ जी ने भी चुप्पी क्यों साध रखी है? जबकि आप राष्ट्रीय विधिक सेवा प्राधिकरण नई दिल्ली के संरक्षक हैं और मेरी असंख्य पत्र याचिकाएं दायर करने के उपरांत भी आपने अपने मौलिक कर्तव्यों को निष्ठापूर्वक नहीं किया। आखिर क्यों? माननीय मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति श्री डी वाई चंद्रचूड़ जी उत्तर क्यों नहीं दे रहे? कृपया सादर शीघ्र अतिशीघ्र उत्तर देकर कृतार्थ करें।
माननीय मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति श्री डी वाई चंद्रचूड़ जी सार्वभौमिक सत्य यह है कि मैं आपसे "भीख" नहीं "न्याय" मांग रहा हूॅं। जो मेरा मौलिक अधिकार है और आपका मौलिक कर्तव्य है। जिससे आप पतली गली से नहीं भाग सकते। क्योंकि आप हम जैसे नागरिकों द्वारा दिए "टेक्स अर्थात कर" से भारीभरकम वेतन भत्ते और राजसी सुविधाओं का सुख भोग रहे हो। चूंकि आपके पिताश्री भी भारत के मुख्य न्यायाधीश रहे हैं। जिनकी योग्यता के कारण और कॉलेजियम प्रणाली के आधार पर आप न्यायाधीश बने और अब आप अपनी योग्यता दर्शाने एवं अपने संवैधानिक मौलिक कर्तव्यों से सरपट भागना शोभा नहीं देता। इसलिए मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति श्री डी वाई चंद्रचूड़ जी मुझे न्याय नहीं तो कम से कम "उत्तर" तो दीजिए। चूंकि न्याय पाने हेतु उत्तर आवश्यक हैं।
माननीय मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति श्री डी वाई चंद्रचूड़ जी उत्तर इसलिए भी आवश्यक हैं चूंकि मैं पिछले अठाईस वर्षों से माननीय जम्मू और कश्मीर और लद्दाख उच्च न्यायालय से लेकर उच्चतम न्यायालय से न्याय मांग रहा हूॅं और न्याय तो दूर मुझे सरकार के गृह मंत्रालय के अंतर्गत आता मेरा पैतृक विभाग एसएसबी अर्थात सशस्त्र सीमा बल उचित उत्तर तक नहीं दे रहे और माननीय जम्मू और कश्मीर और लद्दाख उच्च न्यायालय के माननीय न्यायाधीश उन्हें पिछले 09 माह से समय देते जा रहे हैं। जिसे संवैधानिक और लोकतांत्रिक दुर्भाग्य कहना अतिश्योक्ति नहीं है।
उल्लेखनीय है कि मैं राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) और राष्ट्रीय कैडेट कोर (एनसीसी) द्वारा सीखी राष्ट्रभक्ति और मानवता सहित सशस्त्र सीमा बल विभाग ने निर्धारित लिखित एवं शारीरिक परीक्षा उत्तीर्ण करने के साथ-साथ साक्षात्कार के उपरांत मुझे 05-12-1990 को शारीरिक एवं मानसिक स्वस्थता प्रमाणपत्र सहित सर्कल आर्गेनाइजर ज्यौड़ियां में नियुक्त किया था। जिसमें मेरा दो वर्ष का प्रोबेशन पीरियड अर्थात परिविक्षॉ अवधि थी अर्थात भारत के समस्त कर्मचारियों की भांति दो वर्ष के लिए अस्थाई था। जिस अवधि को मैंने कुशलतापूर्वक पूरा किया था। परन्तु उसके बावजूद मुझे भारत के समस्त कर्मचारियों की भांति भारतीय सेवा नियमों को तिलांजलि देते हुए मुझे तत्कालीन सक्षम प्राधिकारी एरिया आर्गनाइजर श्री के. डी. सिंह जी ने अपने मौलिक कर्तव्यों पर खरा नहीं उतरते हुए मुझे स्थाई नहीं किया था। जिसके आधार पर सक्षम प्राधिकारी श्री के. डी. सिंह जी दोषी हैं। जिसका दण्ड मैं, मेरी धर्मपत्नी श्रीमती सुशीला बाली और मेरे बच्चे निरंतर आज तक भोग रहे हैं और माननीय जम्मू और कश्मीर और लद्दाख उच्च न्यायालय के तत्कालीन माननीय न्यायाधीश न्यायमूर्ति श्री ए. एम. मीर जी मेरी धर्मपत्नी श्रीमती सुशीला बाली की याचिका ओडव्ल्यूपी अंक 968/96 में अपनी मूर्खता का परिचय देते हुए और मुझे पागल बताते हुए 09 फरवरी 1998 में स्पष्ट आदेश पारित करते हैं कि याचिकाकर्ता के किसी अधिकार का हनन नहीं हुआ है और इसी आधार पर याचिका खारिज की जाती है। मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति श्री डी वाई चंद्रचूड़ जी "नारी सशक्तिकरण" का इससे बड़ा उपहास क्या होगा और इससे अधिक माननीय न्यायालय को कलंकित करते हुए "अन्याय" का उदाहरण कहॉं मिलेगा? क्या यह न्यायिक भ्रष्टाचार नहीं है? क्या यहॉं प्रमाणित नहीं हो रहा कि "न्यायिक नपुंसकता और मौलिक कर्तव्यों की चक्की में हमारे मौलिक अधिकार सिसक रहे हैं"?
माननीय मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति श्री डी वाई चंद्रचूड़ जी मेरी राष्ट्रभक्ति और मानवता के आधार पर मेरे तत्कालीन सर्कल आर्गेनाइजर श्री प्रदीप कुमार गुप्ता जी ने मुझे दिनांक 21-02-1994 को मानसिक प्रताड़ना सहित शारीरिक रूप से अत्यधिक पीटा था। जिसके कारण मैं कार्यालय में ही बेहोश हो गया था। लम्बी बेहोशी के बावजूद जब मुझे होश नहीं आया तो मुझे 23-02-1994 को ज्यौड़ियां सरकारी चिकित्सालय में दाखिल कराया था। जहॉं से रेफर करवाकर जम्मू मेडिकल कॉलेज से होते हुए मनोरोग चिकित्सालय जम्मू में दाखिल कराया था। जहां मुझे 28-02-1994 से 05-03-1994 तक "ब्रीफ साईकोटिक डिसार्डर" बीमारी की घोषणा करते हुए "सेडेटिव" उपचार दिया गया था। माननीय मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति श्री डी वाई चंद्रचूड़ जी साक्ष्य के रूप में मेरी बेहोशी के दिन की मुझे एक दिन का अर्जित अवकाश और 23-02-1994 से 11-03-1994 तक 17 दिवस का चिकित्सा अवकाश और 12-03-1994 से 18-03-1994 तक पुनः अर्जित अवकाश दिया गया था। जबकि इसके बीच मैं किसी विवाह समारोहों में नहीं गया था बल्कि मानसिक उत्पीड़न एवं पिटाई से उभरने का उपचार करवा रहा था। जिसको माननीय जम्मू और कश्मीर और लद्दाख उच्च न्यायालय के माननीय न्यायाधीश न्यायमूर्ति श्री ए. एम. मीर जी ने न्यायिक भ्रष्टाचार की भेंट चढ़कर मुझे ही पागल घोषित करते हुए याचिका ओडव्ल्यूपी अंक 968/96 रद्द कर दी थी। जिसे माननीय मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति श्री डी वाई चंद्रचूड़ जी क्रूरतम से क्रूरतम आपराधिक संज्ञा देना अतिश्योक्ति नहीं होगी।
माननीय मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति श्री डी वाई चंद्रचूड़ जी इसके बाद भी मुझे सुकून से राष्ट्र सेवा नहीं करने दी बल्कि इसके बाद भी मुझे भयानक रूप से प्रताड़ित किया गया। जिसके कारण मुझे पुनः 26-05-1994 से 28-05-1994 तक मनोरोग चिकित्सालय जम्मू में दाखिल कराया गया। जहां "एंग्जायटी स्टेट" अर्थात चिंता की स्थिति का उपचार आरंभ किया था। जिसके लिए मैं अभी उपचाराधीन ही था कि मेरा स्थानांतरण लेह लद्दाख जैसे दुर्गम क्षेत्र में कर दिया। जबकि लाख यातनाएं करने पर भी एक तो मुझे चिकित्सा अवकाश अर्थात मेडिकल लीव उपलब्ध नहीं करवाई गई और दूसरा मुझे छुट्टी पर ही 01-08-94 को रिलीव कर दिया। जबकि मेरे साक्ष्य चीखकर कर बोल रहे हैं कि मैंने 03-08-1994 को भी मानसिक चिकित्सालय से उपचार करवा रहा था। जबकि मेरे विभागीय भ्रष्ट एवं क्रूर अधिकारियों ने मेंटल हेल्थ एक्ट 1987 का खुल्लमखुल्ला उल्लंघन करते हुए मुझे दुर्गम क्षेत्र में स्थांतरित कर दिया। जिसे दिनांक 22-07-1994 और 30-07-1994 को तत्कालीन एरिया आर्गनाइजर श्री के.डी. सिंह जी द्वारा पारित कार्यालय आदेश अंक 2825-29 और ए-12/94-एओजे/2937-44 उनकी अमानवता, निर्ममता और भ्रष्टाचार को प्रमाणित करते हैं। जिन्हें सर्वप्रथम न्यायाधीश न्यायमूर्ति श्री ए.एम. मीर जी ने न्यायिक भ्रष्टाचार को प्रमाणित करते हुए अन्याय किया था। जिसके बावजूद माननीय जम्मू और कश्मीर और लद्दाख उच्च न्यायालय के वर्तमान माननीय न्यायाधीश न्यायिक नपुंसकता को सुचारू रखते हुए और अपने मौलिक कर्तव्यों को निष्ठापूर्वक न करते हुए मेरे मौलिक अधिकारों से खिलवाड़ कर रहे हैं। जिसको रेखांकित करने के लिए मुझे उपयुक्त शब्दावली का प्रयोग करने के लिए विवश होना पड़ रहा है। चूंकि मेरे साथ-साथ मेरी धर्मपत्नी श्रीमती सुशीला बाली और बच्चे भी उपरोक्त अमानवता, निर्ममता और भ्रष्टाचार का शिकार हो रहे हैं। जबकि हम अलग-अलग जीवनयापन कर रहे हैं। क्योंकि माननीय जम्मू और कश्मीर और लद्दाख उच्च न्यायालय मेरी धर्मपत्नी श्रीमती सुशीला बाली का विश्वास उसकी याचिका रद्द करके खो चुकी है। इसलिए माननीय मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति श्री डी वाई चंद्रचूड़ जी न्यायालय के विश्वास को कायम रखने के लिए अपने मौलिक कर्तव्यों से न भागें। चूंकि माननीय न्यायालयों में मानवता के साथ वर्षों से क्रूरता होती आ रही है और आपके अनुपम कार्यकाल में भी निरंतर जारी है।
माननीय मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति श्री डी वाई चंद्रचूड़ जी अत्यधिक तनाव की भयंकर पीड़ा के साथ हिमाचल प्रदेश के रास्ते से मैं एरिया आर्गनाइजर लेह पहुंचा। जहां एरिया आर्गनाइजर महोदय ने मेरी व्यथा पर दुख प्रकट किया और मुझे आश्वासन दिया कि उनके नेतृत्व में मुझे कोई प्रताड़ित नहीं कर सकेगा। जिनका विशेष आशीर्वाद प्राप्त कर मैंने लेह एरिया के सर्कल आर्गेनाइजर सक्ती (SAKTE) कार्यालय में 16-08-1994 को मैं शामिल हो गया था। जिसकी प्रमाणिकता एरिया आर्गनाइजर महोदय का डीआईजी टी.एन. शानू जी को दिनांक 28-01--1995 का विस्तारपूर्वक लिखा पत्र सिद्ध करता है। जहॉं रात को ही एसएफए (एम) श्री कश्मीर सिंह जी ने विश्वास के आधार पर मुझे चार्ज दिया और वह ट्रक पर बैठ कर अपने घर जम्मू क्षेत्र की ओर चले आए। परन्तु मेरा दुर्भाग्य यह है कि माननीय जम्मू और कश्मीर और लद्दाख उच्च न्यायालय के तत्कालीन तथाकथित माननीय विद्वान न्यायाधीश न्यायमूर्ति श्री ए.एम. मीर जी ने उसे खुली ऑंखों से भी नहीं देखा और यह लिखते हुए याचिका रद्द कर दी कि न्यायालय इससे अधिक कुछ नहीं कर सकती। उन्हें माननीय जम्मू और कश्मीर और लद्दाख उच्च न्यायालय को कलंकित करने पर शर्म आनी चाहिए। जिसके लिए उन्हें माननीय न्यायालय से क्षमा मांगनी चाहिए। ताकि न्याय जिंदा रहे।
माननीय मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति श्री डी वाई चंद्रचूड़ जी चूंकि मैं तनाव और अत्यधिक पीड़ा के साथ लेह में गया था और लेह का तापमान और ऊंचाई के प्रभाव से मैं अत्यधिक प्रभावित हुआ। जिसपर मेरे साथी कर्मियो ने एरिया आर्गनाइजर लेह के दिशा निर्देशों के आधार पर मुझे सेना के 153 जीएच चिकित्सालय में दिनांक 22-08-1994 को दाखिल कराया। जहॉं सेना के विद्वान डॉक्टरों ने दिनांक 31-08-1994 को मेरा मेडिकल बोर्ड करते हुए मुझे हाई आल्टिच्यूट अनफिट कर दिया। जिसपर मेरे हस्ताक्षर करवाते हुए उन्होंने मुझे बताया कि यह क्षेत्र मेरे लिए जानलेवा है जिसके लिए यह क्षेत्र सदा के वर्जिन कर दिया है और छह माह के लिए अस्थाई केटागिरी सी (CEE) कर दिया गया है। उन्होंने मुझे यह भी बताया था कि इस क्षेत्र में मुझे पेरालिसिस भी हो सकता है। जिसकी प्रमाणिकता दिनांक 01-09-1994 को जारी किया सेना का प्रमाणपत्र सिद्ध करता है। जिसमें मेडिकल बोर्ड की आगामी तिथि सहित सबकुछ स्पष्ट लिखा हुआ है। जिसे पहले विभाग ने और फिर विभाग से घूस लेने के आधार पर तथाकथित माननीय विद्वान न्यायाधीश न्यायमूर्ति श्री ए.एम. मीर जी ने नहीं माना और सुशीला बाली बनाम यूनियन ऑफ इंडिया की याचिका ओडव्ल्यूपी अंक 968/96 रद्द कर दी थी। जो हमारे मौलिक अधिकारों और उनके मौलिक कर्तव्यों पर एक भद्दा उपहास था। जिसके आधार पर मेरा विभाग डंके की चोट पर कहता है कि जम्मू और कश्मीर और लद्दाख उच्च ने माना है कि याचिकाकर्ता के किसी भी अधिकार का हनन नहीं हुआ है जो न्यायिक नपुंसकता और मौलिक कर्तव्यों की चक्की में सिसकते मौलिक अधिकार को सिद्ध करता है। जिसे असंवैधानिक करार देना अतिश्योक्ति नहीं है।
माननीय मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति श्री डी वाई चंद्रचूड़ जी जब सेना के डॉक्टरों के दिशा निर्देशों के बावजूद मुझे लेह से स्थांतरित नहीं किया तो मेरी पीड़ा बढ़ती गई और मुझे सिविल अस्पताल में भर्ती करने पर दबाव बनाया। जिसे मैंने नहीं माना और अंततः मुझे डी.ओ. जम्मू के दिनांक 09-09-1994 के वायरलेस मैसेज के आधार पर मुझे जम्मू एरिया में स्थांतरित किया। परन्तु यह भी सोची समझी साजिश थी। जिसका उद्देश्य मुझे और मेरे देश को धोखा देना मात्र था। चूंकि उसमें आप पढ़ सकते हैं कि उक्त आदेश में मुझे चिकित्सा अवकाश पर भेजने के लिए लिखा हुआ है और स्थानांतरित बाद में नियम अनुसार करने के लिए लिखा हुआ है। जबकि विश्व के विज्ञानिको के पास आज तक हाई आल्टिच्यूट का कोई उपचार नहीं है। जबकि डाऊन आल्टिचयूट में भेजना एकमात्र उपाय है। इसी प्रकार प्रताड़ना का भी कोई उपचार नहीं है। जबकि प्रताड़ित मानव को प्रताड़ना मुक्त करना एकमात्र उपाय है। परन्तु मेरे विभाग द्वारा माननीय न्यायालय को यह बताना कि मैंने जम्मू में उपचार हेतु छुट्टी के लिए प्रार्थनापत्र दिया था के सत्य को झुठलाने के लिए उक्त साक्ष्य बहुत है। जो प्रमाणिकता से सिद्ध करता है कि मुझे लेह से जम्मू विभाग ने ही भेजा था। जो महाभ्रष्ट असिस्टेंट डायरेक्टर एडम श्री कर्ण सिंह जी की सोची समझी रणनीति पर आधारित था और खुल्लमखुल्ला मेंटल हेल्थ एक्ट 1987 एवं संविधान की धारा 21 का उल्लंघन था। जो ए.एम. मीर को दिखाई नहीं दिया। हालॉंकि एरिया आर्गनाइजर लेह द्वारा लिखा विस्तारपूर्वक पत्र इसको चिन्हित करते हुए मेरा पक्ष सशक्त करता है। माननीय मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति श्री डी वाई चंद्रचूड़ जी उक्त प्रताड़ना पर शोधार्थियों द्वारा शोध करवाना चाहिए ताकि न्याय जीवित रह सके और माननीय न्यायालय एवं न्यायाधीशों की संवैधानिक गरिमा बनी रहे।
माननीय विद्वान मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति श्री डी वाई चंद्रचूड़ जी मैं अपने मौलिक अधिकारों के प्रति सदैव सजग था। जिसके आधार पर अपने मौलिक कर्तव्य का पालन करते हुए मैंने दिनांक 24-10-1994 को डिविजनल आर्गनाइजर जी को सीधे जम्मू में सेवा सुचारू करने हेतु प्रार्थनापत्र दिया। जिसके उत्तर में असिस्टेंट डायरेक्टर (एडम) श्री कर्ण सिंह जी ने मेरी उक्त याचिका का उल्लेख करते हुए रजिस्टर्ड लेटर द्वारा भेजे मेमोरेंडम नंबर 21240-41 दिनांक 01-11-1994 के अंतर्गत मुझे सेवा सुचारू संबंधित प्रार्थना डिव. हेडक्वार्टर में नहीं करने के दिशा निर्देश जारी करते हुए एरिया आर्गनाइजर लेह को करने को कहा था। जिसकी प्रतिलिपि मेरी प्रार्थनापत्र सहित एरिया आर्गनाइजर लेह को भी भेजी गई थी।
माननीय मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति श्री डी वाई चंद्रचूड़ जी विभागीय क्रूरता के नंगे नाच की श्रंखला में बढ़ोतरी करते हुए मेरे विभागीय क्रूर एवं भ्रष्ट अधिकारियों ने मानवीय मूल्यों पर आधारित सेना के डॉक्टरों के बोर्ड द्वारा प्रदत्त प्रमाणपत्र की भी खुलकर खिल्ली उड़ाई। जिसका प्रमाण यह है कि डिव. हेडक्वार्टर जम्मू के महाभ्रष्ट एसिस्टेंट डायरेक्टर एडम कर्ण सिंह द्वारा दिनांक 13-10-1994 के सिग्नल नंबर 3384 के अंतर्गत मुझे एरिया आर्गनाइजर लेह श्री एल आर इंचन द्वारा एक टेलिग्राम भेजी गई। जिसके अनुसार मुझे मेरे स्थानांतरण हेत प्रार्थनापत्र भेजने को कहा गया था। जिसके साथ आथोराइजिड मेडिकल अटेंडेंट द्वारा जारी और चीफ मेडिकल आफिसर द्वारा कौंटरसाइंड किया गया "मेडिकल सर्टिफिकेट" मांगा गया था। जिसमें यह भी स्पष्ट किया गया है कि सेना द्वारा प्रदत्त मेडिकल बोर्ड का प्रमाणपत्र डिव हेडक्वार्टर जम्मू को पहले से ही भेजा जा चुका है। ऐसी विकट परिस्थितियों में भारत की सर्वोच्च न्यायालय के विद्वान मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति श्री डी वाई चंद्रचूड़ जी मेरा सार्वभौमिक प्रश्न आपसे है कि सेना के मेडिकल बोर्ड द्वारा जारी छः माह की अवधि के बीच कौन मेडिकल आफिसर प्रमाणपत्र जारी करेगा और कौन चीफ मेडिकल आफिसर कौंटरसाइंड करेगा?
माननीय मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति श्री डी वाई चंद्रचूड़ जी उपरोक्त अमानवीय ही नहीं बल्कि असंवैधानिक आदेशों के विरुद्ध मैंने दिनांक 16-11-1994 को एरिया आर्गनाइजर लेह को रसीद अंक 1169 के अंतर्गत एक टेलिग्राम दी थी। जिसमें मैंने अपना वेतन मांगते हुए अपनी सेवाएं कहॉं सुचारू करने हेतु पूछा था। हालॉंकि इस युद्ध में मेरी धर्मपत्नी श्रीमती सुशीला बाली ने भी मुझे सहयोग करते हुए एवं नारी शक्ति के सशक्तिकरण का उदाहरण प्रस्तुत करते हुए 09-11-1994 को उसने मेरे डिविजनल आर्गनाइजर को संबोधित करते हुए डिव. हेडक्वार्टर जम्मू को दयनीय दशा का हवाला देते हुए मुझे जम्मू में स्थानांतरित करने हेतु प्रार्थनापत्र भेजा था। परन्तु नारी शक्ति के सशक्तिकरण की धज्जियां उड़ाते हुए उसे भी पत्रांक 21925 द्वारा दिनांक 22-11-1994 को यह लिखते हुए दुत्कार दिया गया था कि वह अपने पति श्री इंदु भूषण बाली की स्थानांतरण के लिए एरिया आर्गनाइजर लेह को थ्रू परापर चैनल लिखें और पुनः यहां न लिखें। माननीय विद्वान मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति श्री डी वाई चंद्रचूड़ जी यह मेरे साथ-साथ मेरी धर्मपत्नी श्रीमती सुशीला बाली के साथ भी क्रूरता नहीं तो और क्या है? प्रताड़ित और असहाय पति की सेवा और सुरक्षा के लिए उसकी धर्मपत्नी आवाज बुलंद नहीं करेगी तो कौन आएगा उसकी सहायता करने के लिए श्रीमान माननीय विद्वान मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति श्री डी वाई चंद्रचूड़ जी? अपने नवजात शिशु की परवरिश के लिए भारत सरकार में नियुक्त उसके पिता के विभागीय उच्च अधिकारियों से वेतन नहीं मांगेगी तो किससे मांगेगी? कब तक अपने पिता से अर्थात मायके से मांगकर लाए धन से परिवार का भरण पोषण करेगी? एक विवाहिता स्त्री जिसने अपने पति को सरकारी सेवा हेतु शारीरिक एवं मानसिक रूप से स्वस्थ नियुक्त करवाया था। जिसकी पत्नी, बच्चों एवं माता पिता के उपचार का सारा दायित्व सरकार का होता है। वह मां अपने शिशु के लिए मातृत्व का और अपने प्रताड़ित बीमार पति के प्रति अपने पत्नीधर्म के मौलिक कर्तव्यों के निर्वहन की पूर्ति कैसे करेगी? भारतीय न्यायव्यवस्था के कर्णधार माननीय उच्चतम न्यायालय के विद्वान माननीय मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति श्री डी वाई चंद्रचूड़ जी स्पष्ट उत्तर देते हुए देश की समस्त सशक्त नारी जाति को मार्गदर्शन करते हुए भारत माता को आश्वस्त करते हुए संवैधानिक स्पष्ट उत्तर दें? यही प्रश्न सादर माननीय सशक्त प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी जी एवं राष्ट्रपति श्रीमती द्रौपदी मुर्मू जी से भी है ? चूंकि उपरोक्त कटु प्रश्न भारतीय सभ्यता, संस्कृति और सम्पूर्ण भारतीय नारी के अस्तित्व के साथ-साथ भारतीय न्यायपालिका एवं संविधान द्वारा प्रत्येक नागरिक को प्रदत्त आश्वासन पर आधारित प्रश्नचिन्ह है।
माननीय उच्चतम न्यायालय के विद्वान माननीय मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति श्री डी वाई चंद्रचूड़ जी मेरी चिंताओं का हश्र यही हो रहा था कि "ज्यों ज्यों इलाज किया मर्ज बढ़ता गया" वाली कहावत विभाग चरितार्थ कर रहा था। जिसका साक्ष्य विभाग द्वारा भेजा दिनांक 06-12-1994 का पत्रांक 3892-94 स्पष्ट बता रहा है कि विभाग ने मुझे एक साधारण तार भेजा था। जिसमें मुझे तुरन्त शक्ति (SAKTE) उपस्थित होने के लिए आदेश दिया गया था। जो एक ओर विश्वशनीय सेना के डॉक्टरों द्वारा प्रदत्त हाई आल्टिच्यूट अनफिट के प्रमाणपत्र की अवमानना था और दूसरी और संविधान की धारा 21 एवं मेंटल हेल्थ एक्ट 1987 का हनन था। चूंकि विभागीय आदेश को मानने का अर्थ स्पष्ट था कि मुझे पेरालिसिस हो जाएगा या फिर मृत्यु हो जाएगी। जिसके परिणामस्वरूप मेरी चिंताओं का बढ़ना स्वाभाविक था। चूंकि उसमें मुझे स्पष्ट आदेश दिया गया था कि यदि आप शक्ति कार्यालय में उपस्थित नहीं होते तो आप पर अनुशासनात्मक कार्रवाई की जाएगी अर्थात आगे मौत पीछे कुआं वाली कहावत चरितार्थ हो रही थी। जिसकी सूचना डिव. हेडक्वार्टर के असिस्टेंट डायरेक्टर एडम श्री कर्ण सिंह जी को भी भेजी गई थी। इसके अलावा मुझे समझाने हेतु उक्त पत्र की प्रतिलिपि सब एरिया आर्गनाइजर अखनूर को सूचनार्थ भेजी गई थी। जिसमें उक्त कार्यालय से अनुरोध किया गया था कि वे ऊपर दिए गए कर्मचारी अर्थात इंदु भूषण बाली से अर्थात मुझसे संपर्क साधें और मुझे शक्ति उपस्थित करें। माननीय मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति श्री डी वाई चंद्रचूड़ जी यहॉं बताना अत्यन्त आवश्यक है कि मुझे विवश करने के लिए अर्थात मुझे किसी भी तरह शक्ति कार्यालय में उपस्थित करने के लिए विभिन्न कर्मचारियों एवं अधिकारियों की सेवा का प्रयोग कर रहे थे। जिसके फलस्वरूप वह कर्मचारी/अधिकारी मेरी धर्मपत्नी सहित मेरे पारिवारिक सदस्यों को भी मेरे विरुद्ध उकसा रहे थे। यहॉं तक कि वे मेरे मित्र वर्ग और पड़ोसियों को भी मेरे विरुद्ध दुष्प्रचार कर रहे थे और उनसे आग्रह कर रहे थे कि वह इंदु भूषण बाली को शक्ति कार्यालय में उपस्थित करने में विभाग/सरकार की सहायता करें। चूंकि इंदु भूषण बाली पागल हो चुका है और सरकार उसे सहानुभूति के आधार पर पटरी पर लाना चाहती है ताकि इसकी बीवी और बच्चों का भरण पोषण होता रहे। जिसके कारण मेरे संबंध मित्र वर्ग सहित पड़ोसियों के साथ साथ मेरे पारिवारिक सदस्यों से भी बिगड़ते गए और मैं पारिवारिक एवं सामाजिक तिरस्कार का भी पूरी तरह शिकार हो गया। जबकि मेरी व्यथा यह थी कि मैं मानवीय विश्वसनीयता के प्रतीक सेना के डॉक्टरों के बोर्ड द्वारा जारी किए गए हाई आल्टिच्यूट अनफिट के प्रमाणपत्र का पालन करते हुए राष्ट्रसेवा हेतु जीवित रहना चाहता था और शक्ति कार्यालय में उपस्थित होने के आदेश का अर्थ निरापराध मृत्यु दण्ड था। माननीय विद्वान मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति श्री डी वाई चंद्रचूड़ जी राष्ट्रीय सेवा हेतु जीवित रहने के प्रयास करना और मानवीय विश्वसनीयता के प्रतीक सेना के डॉक्टरों के बोर्ड द्वारा दिए गए परामर्श का पालन करना क्या क्रूरतम से क्रूरतम अपराध है?
माननीय उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति श्री डी वाई चंद्रचूड़ जी पारिवारिक, मित्र वर्ग एवं पड़ोसियों की तथाकथित सहानुभूतियों अर्थात सद्भावनाओं का परित्याग करते हुए मैंने दिनांक 09-12-1994 को भारतीय डाक विभाग की रसीद क्रमांक 1223 द्वारा एरिया आर्गनाइजर लेह को एक तार भेजा जिसमें अंग्रेज़ी भाषा में यूं लिखा "रेडी टू ओबे यूअर आर्डरस. बट आर यू रेस्पोंसिबल फार माई डैथ/मिस्हैपनिंग ड्यू टू हाईआलटीचियूट अनफिट बाई डॉक्टर्स. रिप्लाई टेलिग्राफिकली प्लीज़" अर्थात मैंने अपनी पीड़ाओं को सार्वभौमिक सत्य के आधार पर एरिया आर्गनाइजर लेह को आरपार की लड़ाई का लक्ष्य साधते हुए लिखा था कि मैं आपके आदेश की पालना के लिए तैयार हूॅं। परन्तु क्या आप डॉक्टरों के परामर्श के विरुद्ध हाई आल्टिच्यूट अनफिट के कारण मेरी मृत्यु या अनहोनी के जिम्मेदार हैं? कृपया तार द्वारा उत्तर दें।
माननीय उच्चतम न्यायालय के माननीय विद्वान मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति श्री डी वाई चंद्रचूड़ जी उपरोक्त तार ने भयंकर रूप धारण किया था। जिसका साक्ष्य यह है कि उसके फलस्वरूप दिनांक 28-12-1994 का सब एरिया आर्गनाइजर अखनूर का हस्ताक्षर किया हुआ विभागीय पत्रांक 468 प्राप्त हुआ। जिसमें दिनांक 07-12-1994 के डीओ आर्डर नंबर 22827-29 के अंतर्गत एरिया आर्गनाइजर लेह द्वारा एरिया आर्गनाइजर रजौरी को वायरलेस मैसेज किया गया है। जिसमें मुझे लेह एरिया से रजौरी एरिया में मेरे अनुरोध पर बिना टिए/डिए/ज्वाइनिंग टाइम के स्थायी स्थांतरित दर्शाया गया है। जिसकी सूचना देने के सब एरिया आर्गनाइजर अखनूर को आदेश दिया गया है कि वह मुझसे संपर्क साध कर उक्त मैसेज मुझे दें। जिसमें यह भी लिखा गया है कि विस्तारपूर्वक स्थानांतरण आदेश बाद में डाक द्वारा भेजा जाएगा। माननीय विद्वान मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति श्री डी वाई चंद्रचूड़ जी यह विभागीय अधिकारियों की साज़िश नहीं तो और क्या है? जबकि एक ओर तार द्वारा तुरन्त लेह एरिया के शक्ति कार्यालय में उपस्थित होने पर बल दिया गया था जिसकी पालना नहीं करने पर मुझ पर अनुशासनात्मक कार्रवाई की धमकी दी जा रही थी। जिसकी पालना के लिए मैंने दिनांक 09-12-1994 को भारतीय डाक विभाग की रसीद क्रमांक 1223 द्वारा एरिया आर्गनाइजर लेह को एक तार भेजा था। जिसमें उनकी सहमति के बारे में स्पष्ट पूछा था। तो ऐसी हालत में मेरा प्रार्थनापत्र कहॉं से आ टपका? यूॅं भी रजौरी मेरे घर से 150 किलोमीटर की दूरी पर है अर्थात "आसमान से गिरा और खजूर पर लटका" वाली कहावत मैं क्यों चरितार्थ करूंगा? जबकि रजौरी क्षेत्र का कुछ भाग भी हाई आल्टिच्यूट था जहॉं बर्फ ही बर्फ थी और उस पर आंतकवाद से भी ग्रस्त था। अर्थात वहॉं स्थानांतरित करना विभागीय भ्रष्ट एवं क्रूर अधिकारियों की एक साज़िश का उदाहरण है। जो मात्र " एक तो करेला और उस पर नीम चढ़ा" वाली कहावत चरितार्थ करता है। जो माननीय जम्मू और कश्मीर और लद्दाख के तत्कालीन माननीय विद्वान न्यायाधीश न्यायमूर्ति श्री ए एम मीर जी को सुशीला बाली बनाम यूनियन ऑफ इंडिया एण्ड अदर्स ओडव्ल्यूपी अंक 968/96 की सुनवाई के दौरान दिनांक 24-12-1997 को बताने का प्रयास कर रहा था कि उन्होंने मुझे पागल घोषित करते हुए चुप करा दिया था। जो न्यायिक नपुंसकता और मौलिक कर्तव्यों की चक्की में सिसकते मेरे मौलिक अधिकारों की व्यथा को प्राथमिकता के आधार पर प्रमाणित करता है। जिसका उत्तर देना माननीय विद्वान मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति श्री डी वाई चंद्रचूड़ जी आपका मौलिक कर्तव्य बनता है।
भारत की माननीय सर्वोच्च न्यायालय के माननीय विद्वान मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति श्री डी वाई चंद्रचूड़ जी दिनांक 28-12-1994 को एरिया आर्गनाइजर लेह द्वारा दिनांक 26-12-1994 द्वारा हस्ताक्षरित कार्यालय आदेश अंक 5025-31 बताता है कि जिस चार्ज को मैंने एसएफए (एम) श्री कश्मीर सिंह जी से मानवीय विश्वास पर लिया था। उसका प्रत्यक्ष सत्यापन अर्थात फिजिकल वेरिफिकेशन उसी अधिकारी ने करनी है। जिसने पहले ही कश्मीर सिंह से एक कोट पहनने के लिए अवैध रूप से लिया हुआ था। अर्थात चोर को ही न्यायाधीश बना दिया गया। जिसकी जांच होनी आवश्यक ही नहीं बल्कि सत्य को उजागर करने हेतु परमावश्यक है। ताकि सत्य राष्ट्र और देशवासियों के समक्ष प्रस्तुत किया जा सके।
माननीय मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति श्री डी वाई चंद्रचूड़ जी मरता क्या न करता वाली कहावत चरितार्थ करते हुए नए वर्ष की नई चुनौती को स्वीकार करते हुए मैंने राजौरी एरिया आर्गनाइजर कार्यालय में एरिया आर्गनाइजर श्री बी.के. आनंद जी के समक्ष उपस्थित हुआ। जहॉं उन्होंने सम्पूर्ण सहयोग देने का आश्वासन देते हुए पहले से बनाई योजना के अंतर्गत आंतकवाद क्षेत्र थानामंड़ी के सर्कल आर्गेनाइजर आफिस में मुझे तैनात किया था। जबकि उनका सहयोग मात्र "हाथी के दांत खाने के ओर और दिखाने के ओर" वाली कहावत को चरितार्थ करते थे। जिसका सामना करने हेतु मैंने अपनी उपस्थिति सर्कल आर्गेनाइजर आफिस थानामण्डी में दर्ज कराई थी। अन्यथा मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति श्री डी वाई चंद्रचूड़ जी अपनी विद्वता का लेशमात्र प्रयोग करते हुए राष्ट्र को बताने का कष्ट करें कि विश्वसनीय सेना के विद्वान डॉक्टरों द्वारा इफैक्टिव मूड डिसार्डर के अंतर्गत केटेगरी सी (CEE) घोषित कर्मचारी का आंतकवाद क्षेत्र में क्या कार्य था? जबकि उसकी समस्त सेवाएं केटेगरी सी के आधार पर स्थगित की गई थीं। ऐसी विकट परिस्थितियों में मेंटल हेल्थ एक्ट 1987 एवं संविधान की धारा 21 का स्पष्ट हनन करते हुए मुझे वहॉं तैनात करने के पीछे का उद्देश्य क्या था? जिसे छुपाने हेतु तथाकथित माननीय विद्वान न्यायाधीश न्यायमूर्ति श्री ए. एम. मीर जी ने दोषियों की सहायता करने हेतु कितनी घूस खाई होगी? चूंकि प्रश्न मेरे और मेरे परिवार की क्षति का है। जिसके लिए कृपया गंभीरतापूर्वक मंथन करने के उपरांत शान्त मन से मेरे राष्ट्र के साथ साथ माननीय मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति श्री डी वाई चंद्रचूड़ जी सम्माननीय मुझे भी बता कर कृतार्थ करें।
माननीय उच्चतम न्यायालय के माननीय मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति श्री डी वाई चंद्रचूड़ जी उपरोक्त अवस्थाओं को उजागर करने हेतु आदरणीय एरिया आर्गनाइजर लेह के 28 जनवरी 1995 के पत्र जो उन्होंने सजगता से डिविजनल आर्गनाइजर जम्मू के डिप्टी इंस्पेक्टर जनरल श्री टी. एन. शानू जी को विस्तारपूर्वक लिखा है को संज्ञान में लेने की आवश्यकता है। जिसमें उन्होंने समस्त वायरलेस मैसेजों सहित स्पष्ट किया हुआ है कि कब कब क्या क्या हुआ था। जिस पत्र में उन्होंने एरिया आर्गनाइजर राजौरी के सिग्नल नंबर 32 का हवाला देते हुए अर्धसत्य बताया हुआ है कि मैं 09-09-1994 से लेकर 31-12-1994 तक छुट्टी पर रहा हूॅं। जिसमें यहां तक झूठ दर्शाया गया है कि बिना मेडिकल सर्टिफिकेट के मुझे 37 दिन की एक्स्ट्रा आर्डिनरी लीव देकर मेरी सर्विस ब्रेक कर दी गई है। जबकि सेना के मेडिकल बोर्ड द्वारा जारी छः माह का मेडिकल सर्टिफिकेट उनके पास था। जिसके अन्तर्गत वह दोषी सिद्ध हो रहे हैं।