सुबह सबेरे बिस्तर से उठा और नियमानुसार सैर करने के लिए पग उठाने से पहले अपनी इच्छानुसार यूट्यूब पर गीत सुनने के लिए मोबाइल आरम्भ किया। फिल्म 'संबंध' के गीतकार प्रदीप (रामचंद्र नारायणजी द्विवेदी) द्वारा लिखे और मुकेश (मुकेश चंद माथुर) द्वारा गाया गीत "चल अकेला चल अकेला चल अकेला, तेरा मेला पीछे छूटा राही चल अकेला" सुरीले स्वर में सुनने को मिला। जिसने मेरा मन मोह लिया और मेरे चंचल मन के मस्तिष्क में विचार कौंधा कि "मैं तो युगों युगों से अकेला ही चल रहा हूॅं। जैसे कि मां की कोख से अकेला पैदा हुआ। भले ही मेरे से पहले उसी कोख से मेरे पांच भाई पहले से अकेले अकेले जन्म ले चुके थे। जिन्हें प्रकृति भी झूठला नहीं सकती।
उल्लेखनीय है कि शब्दों में शब्द "अकेला" शब्द न होकर एक लम्बी यात्रा का वृत्तांत है। जिसे एक उपन्यास में लिख पाना संभव नहीं है। चूंकि अकेले जन्म लेना, अकेले पढ़ाई करना, जीवन के संघर्षों में अकेले जूझना और अकेले ही समस्त चुनौतियों का सामना करते हुए अंततः अकेले मर जाना अकल्पनीय ही नहीं बल्कि विश्वशनीय भी है। जिससे सर्वसाधारण ही नहीं अपितु महा विद्वान भी प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकते। ऐसे में मैं किस खेत की मूली हूॅं?
वर्णनीय है कि मैं अपने जीवनकाल के अनमोल साठ वर्ष मूली की चटनी, मूली का आचार और मूली के परांठों की भांति दूसरों के स्वाद का ग्रास अकेला ही बनता रहा हूॅं और विभागीय अपनों से लेकर कुटुम्ब एवं सभ्य समाज तक से पागल की संज्ञा के अंतर्गत अशोभनीय व्यवहार से प्रताड़ित हुआ हूॅं। जिससे मेरा तिलमिलाना और छटपटाना स्वाभाविक है। क्योंकि अपनेआप को विद्वान सिद्ध करना मेरा मौलिक अधिकार ही नहीं बल्कि मौलिक कर्तव्य भी है। जिसका पालन करते हुए मुझे यह प्रमाणित करना है कि मैं एक विद्वान लेखक के साथ साथ उच्च कोटि का विद्वान याचक भी हूॅं। जो अपनी सहायता स्वयं करते हुए माननीय जम्मू और कश्मीर और लद्दाख उच्च न्यायालय में सत्य के साक्ष्यों के अस्त्रों शस्त्रों से सुशोभित अकेला खड़ा हूॅं। इन्हीं साक्ष्यों के आधार पर पिछले तीन दशकों से न्यायिक युद्ध लड़ रहा हूॅं। जिसमें दुर्भाग्यवश षडयंत्र रचयिता मेरी धर्मपत्नी और बच्चों को भी मुझसे पृथक करने में सफल हो गए। जो शत्रु पक्ष की एक घिनौनी साज़िश के अलावा कुछ भी महत्व नहीं रखती। चूंकि मेरी धर्मपत्नी मेरी है और सदैव मेरी ही रहेगी। हमारे बच्चे भी हमारे हैं और हमारे ही रहेंगे। सत्य यह भी है कि एक न एक दिन हमारा मिलन भी अवश्य होगा। जिससे "सुबह के भूले को शाम को घर आने पर भूला नहीं कहते" वाली लोकोक्ति का उल्लेख करते हुए हम पति पत्नी मृत्यु की आगोश में समाने से पूर्व सबकुछ भूलकर बच्चों सहित नए जीवन का शुभारम्भ करेंगे।
सर्वविदित है कि पिछले कल अत्यधिक अंतराल पर मैं अपने पारिवारिक शौकाकुल कार्यक्रम में शामिल हुआ था। जिसमें मुझे पागल सिद्ध करने वाले मेरे सगे, चचेरे, मौसेरे, फुफेरे भाई बंधु भी उपस्थित थे। जो मेरे सहित अन्य उपस्थित सदस्यों की भांति गोलगप्पों, आइसक्रीम, सलाद सहित स्वादिष्ट भोजन का आनन्द प्राप्त कर रहे थे। अर्थात मेरी भांति ही वह भी खा पी रहे थे। कहने का अभिप्राय यह है कि उनके और मेरे बीच "आचार व्यवहार" में कोई अंतर नहीं था। ऐसे में मैं पागल और वह विद्वान कैसे हो सकते हैं?
यह बात अलग है कि वह अपने असामान्य जीवन को सामान्य दर्शाते हुए अपने दाम्पत्य और पारिवारिक जीवन को कुशलता के ढोंग से ढकने का अथक प्रयास कर रहे थे। जबकि मेरा परिवार उनके भरोसे का शिकार होकर उक्त कार्यक्रम में उपस्थित नहीं हुआ था। हालांकि मेरी भांजी श्रीमती मंजु शर्मा अर्थात अल्का शर्मा ने मेरी ही लेखनी का हवाला देते हुए सार्वजनिक रूप में मेरी धर्मपत्नी की सुंदरता का व्याख्यान प्राकृतिक सौंदर्य से किया था। पारिवारिक आमन्त्रितकर्ताओं ने भी मेरे परिवार की कमीं का अनुभव करते हुए मुझे शिकायत करते हुए अप्रसन्नता व्यक्त की थी। जिसे विनम्रतापूर्वक अपनी विवशता दर्शाकर मैंने उनसे क्षमा मांग ली थी। परन्तु उन्हें यह भी स्पष्ट बताया था कि यह समय हमारे सुखमय दाम्पत्य जीवन का स्वर्णिम समय है। जिसमें हम उन समस्त खुशियों को प्राप्त करने के साथ साथ अपने प्रत्येक स्वप्न को साकार कर सकते हैं। जिनको अतीत में आर्थिक कारणों के चलते पूरा करने में हम पूरी तरह अक्षम थे। जबकि वर्तमान समय में अन्यों की भांति विभिन्न तीर्थस्थलों का दर्शन करते हुए हम भी अपना जीवन सफल बना सकते हैं। यूं भी कोई पति अपनी धर्मपत्नी और औलाद से जीत नहीं सकता और मैं भी अपनी अप्सरा रूपी सुशील व सुंदर धर्मपत्नी से हार की जीत के आनन्द से वंचित नहीं होना चाहता। अर्थात उनकी विजय की गर्भ में ही मेरी विजयश्री समाई हुई है। अर्थात उनकी जीत में ही मेरी प्रसन्नता है। वैसे भी परिवार प्रतियोगिता के आधार पर नहीं बल्कि सदैव समर्पण भाव से फूलते फलते हैं।
जिसका भावार्थ यह है कि वर्तमान समय में ईश्वर ने हमें तन मन और धन से परिपूर्ण किया हुआ है और मेरा न्यायिक युद्ध भी विजयपथ पर अग्रसर हो रहा है। जिसमें मेरे ऊपर लगाए गए भ्रष्ट अधिकारियों द्वारा "देशद्रोह" के विभागीय कलंकित आरोप से भारत सरकार शपथपत्र सहित स्वयं मुकर चुकी है और अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) द्वारा जारी मानसिक स्वस्थ के प्रमाणपत्र के आधार पर स्वयं याचिकाकर्ता के रूप में गत चार वर्षों से माननीय उच्च न्यायालय के माननीय विद्वान न्यायाधीश मुझे सुन भी रहे हैं। इसके अलावा भले ही मैं सेना के कमीशंड आफीसर की भांति नियुक्त नहीं हुआ था परन्तु सेना के सिपाही की भांति भी भर्ती नहीं हुआ था। चूंकि मैं जम्मू और कश्मीर एवं हिमाचल प्रदेश की चयन प्रक्रिया द्वारा चयनित होकर वरिष्ठ क्षेत्र सहायक अर्थात सीनियर फील्ड असिस्टेंट (मेडिकल) के पद पर नियुक्त हुआ था। जिसके आधार पर मेरे वेतन भत्तों सहित उच्चस्थ पद एवं प्रतिष्ठा प्राप्ति के समस्त द्वार खुल रहे हैं। क्योंकि वर्तमान समय में मेरे अंग संग शनिदेव जी एवं जय राजा मंडलीक जी के ईश्वरीय आशीर्वादों की छत्रछाया है। जो कलयुग के न्यायाधीश एवं दंडाधिकारी भी हैं। जिसके कारण मुझे पागल सिद्ध करने वाले स्वयं पागल प्रमाणित हो रहे हैं। जिन्हें ईश्वर सद्बुद्धि दें। जिससे प्रफुल्लित होकर मेरी धर्मपत्नी फिल्म "यादगार" के लिए लता मंगेशकर द्वारा गाया गीत "नूतन" की भांति मेरे पीछे पीछे गुनगुनाती रहे "जिस पथ पे चला उस पथ पर मुझे ऑंचल तो बिछाने दे साथी ना समझ कोई बात नहीं मुझे साथ तो आने दे" और मैं राष्ट्रहित की चुनौतियों को स्वीकार करते एवं अपने मौलिक कर्तव्यों की आहूतियां देते हुए राष्ट्रपथ पर अग्रसर होता रहूॅं। ॐ शांति ॐ