सम्पूर्ण संसार को कुटुम्ब मानते हुए हमें एकॉंत में अंतर्ध्यान होकर विचार करना चाहिए कि यह सुंदर समाज, सामाजिक बंधन, भाई बंधुत्व, स्त्री-पुरुष, पुत्र पौत्र यहॉं तक कि हमारा शरीर भी क्या अपना है? तो हमें अपनी अंतरात्मा से स्पष्ट उत्तर मिलेगा कि संसार एवं सांसारिक जीवन एक माया है जो मिथ्या है जिसे कर्मों का फल भोगने हेतु ईश्वर ने हमें अल्पावधि के लिए दिया हुआ है। वास्तविकता तो यह भी है कि उक्त सम्बन्ध भी प्रारब्ध कर्मानुसार ही हमें मिले हुए हैं जिनका भुगतान होते ही पवित्र रिश्ता टूट जाता है या घटनावश पीछे छूट जाता या वर्तमान रूठ जाता है।
यहॉं तक कि जब कोई जनसाधारण व्यक्ति अथवा व्यक्तित्व अपनी इच्छा से शादी करता है तो वास्तव में वह अपने प्रारब्ध कर्मों को ब्याह कर लाता है, उक्त नारी से अर्थात अपनी धर्मपत्नी से जो संतान उत्पत्ति होती है वह भी उन दोनों के प्रारब्ध कर्मों का ही फल होता है अर्थात उक्त नर-नारी अर्थात पति-पत्नि अपने प्रारब्ध कर्मों के अच्छे या बुरे कर्मों को यथावत भोगने हेतु उन्हें जन्म देते हैं और उत्पन्न बच्चों को भी अपने प्रारब्ध कर्मों के खट्टे-मीठे और नमकीन फलों को एक साथ भोगना होता है। जैसे श्री विष्णु हरि जी ने त्रेता/द्वापर युग में मृत्युलोक के अपने रामावतार और कृष्णावतार में भोगा था। वह कहीं पर अवतरित हुए, कहीं पर बचपन व्यतीत करते हुए पले और कहीं ओर जाकर उन्होंने अपनी राजधानी बनाई।
कहने का अभिप्राय यह है कि ईश्वरीय शक्ति सभी को अपने कर्मों का शुद्धिकरण करने एवं अपने वर्तमान समय को सुधारने का सुअवसर प्रदान करती है जिसमें सभी प्राणियों को अपने अच्छे कर्म करने की पूर्णतः स्वतंत्रता होती है। परन्तु यह भी कटुसत्य है कि प्रत्येक मानवीय प्राणी अपने प्रारब्ध कर्मों अनुसार अपने परिवार को जोड़ने एवं तोड़ने की विभिन्न भूमिका निभाते हैं जो नियति द्वारा पूर्व निर्धारित होता है जिसमें किसी को वैभवशाली बनाने का सुअवसर प्राप्त होता है और किसी को भयंकर पीड़ा मिलती है। जिसे हम हॅंस कर सहें या रोकर व्यतीत करें परन्तु यथार्थ यही है कि हमें अपने प्रारब्ध कर्मों के वशीभूत होकर दिया गया कष्ट, पीड़ा सहन करना ही पड़ता है। इसी प्रकार दूसरे शब्दों में प्रारब्ध कर्मों द्वारा मिले वैभवशाली जीवनयापन का सुख भी हम सुखपूर्वक भोगते हैं। अर्थात हम अपने बोए हुए को ही अन्ततः काटते हैं।
उदाहरणार्थ त्रेता युग में परमपिता विष्णु जी ने अपने श्रीराम अवतार में अपनी सौतेली मॉं कैकई द्वारा षड्यंत्र के अंतर्गत दिलाए गए चौदह वर्षों के कष्टदायक वनवास का दण्ड देते हुए द्वापर युग में श्रीकृष्ण अवतार में अवतरित अपनी मॉं देवकी को चौदह वर्षों के कारावास में रखा और यही चौदह वर्ष वह अपने पूर्व अवतार की मॉं कौशल्या को सुख देते हुए द्वापर की पालनहार माताश्री यशोदा की गोद में खेले और उन्हें खुशहाल किया था। परन्तु सौभाग्यवश जैसे ही चौदह वर्ष पूर्ण हुए तो उन्होंने यशोदा मईया से दूर होते हुए माताश्री देवकी के कष्ट हरते हुए उन्हें जेल से ससम्मान मुक्त भी कर दिया था। चूॅंकि माताश्री देवकी के प्रारब्ध बुरे कर्मों का नाश और अच्छे कर्मों का उदय हो चुका था।
ऐसे में हमें भी अपने प्रारब्ध बुरे कर्मों के नाश और अच्छे कर्मों के उदय होने तक धैर्य बनाए रखना होगा। क्योंकि जब श्री राम अवतार और श्रीकृष्ण अवतार में परमपिता परमेश्वर श्री विष्णु हरि जी को अपने कर्मों के फल का भुगतान करना पड़ा था तो हम कलयुग में किस कलयुगी खेत की मूली हैं? सम्माननीयों जय हिन्द
स्वरचित
डॉ. इंदु भूषण बाली
ज्यौड़ियॉं