ध्यान रहे कि ध्यान अपने चारों ओर वृताकार आग लगाकर समाधी लगाने को ही नहीं कहते बल्कि अपने कर्मों के प्रति सशक्त एवं संवेदनशील जागरूकता को भी ध्यान कहते हैं। ध्यान से ही जीव जंतुओं अर्थात प्राणियों से लेकर ईश्वर तक को ध्यानाकर्षित किया जा सकता है। जिस सूक्ष्म ध्यानाकर्षण से मानव शारीरिक चरमसुख से लेकर आध्यात्मिक परमसुख प्राप्त करने में सक्षम हो सकता है। कहने का अभिप्राय यह है कि ध्यान 'ज्ञान' प्राप्ति का आधार है और ज्ञान ही 'परमानन्द' प्राप्ति का स्रोत है। जिससे ईश्वर को प्राप्त किया जा सकता है और ईश्वर की अनुभूति ही परम आनन्द कहलाता है।
उल्लेखनीय है कि मानव युगों युगों से ध्यान लगाकर परमसुख प्राप्ति की चेष्टा करता आ रहा है। जिसके लिए कठिन से कठिन तपस्या की जाती रही है। जिसके लिए त्रेता युग में श्रीराम जी ने और द्वापर युग में श्रीकृष्ण जी ने भी विभिन्न बिन्दुओं पर प्रकाश डाला है। परन्तु सांसारिक बंधनों के चलते हमारा ध्यान भटक जाता है। जिसके आधार काम, क्रोध, लोह, मोह और अंहकार होते हैं। जो हमें भौतिक शारीरिक चरमसुखों से आगे नहीं बढ़ने देते। इसलिए इन्हें मानवीयता के शत्रु की संज्ञा दी गई है।
परन्तु सावधानीपूर्वक ध्यान रहे कि मानव जीवन सुख व दुःख भोगने के लिए प्राप्त नहीं हुआ है। ध्यान यह भी रहे कि मानव जीवन साहित्य अकादमी, पद्मश्री, क्षानपीठ, भारत रत्न और नोबल पुरस्कार प्राप्त करने के लिए भी नहीं मिला है बल्कि मानव शरीर विशेष उद्देश्यपूर्ति हेतु मिला है। जिसके लिए ईश्वर ने मानव को मानव शरीर देकर मृत्युलोक में भेजा है। जिसे ईश्वरीय दण्ड मानें या वरदान परन्तु ध्यान रहे कि उक्त भवसागर से मानव के कर्म ही उसे पार लगा सकते हैं। अर्थात यह वह ईश्वरीय वरदान है जो ईश्वरीय दण्ड से छुटकारा दिलाने में सक्षम है।
भारतीय सभ्यता और संस्कृति मार्गदर्शन करती है कि आत्मा के कष्ट में ही आपके मृत्युलोक में आने का भेद छिपा हुआ है। चूंकि शारीरिक एवं मानसिक कष्ट भौतिक एवं क्षणिक कष्ट माने गए हैं। जिन्हें नाशवान कष्ट की संज्ञा देना अतिश्योक्ति नहीं है। क्योंकि शरीर के नष्ट होते ही उक्त समस्त कष्ट 'नष्ट' हो जाते हैं। परन्तु आत्मा को पहुंची ठेस नाशवान नहीं होती। चूंकि आत्मा अमर है और अमरत्व के रसपान हेतु उक्त ठेस का निपटारा करना ही आपके मृत्युलोक से छुटकारा पाने का एकमात्र लक्ष्य है। जिसके विरुद्ध स्वतंत्रतापूर्वक बिगुल बजा कर सामना करना हमारा मौलिक कर्तव्य है और कर्तव्यों की पूर्ति ही कर्म माना जाता है।
सर्वविदित है कि ध्यानमग्न उक्त कर्तव्यों की चुनौतियों पर मानव द्वारा बिंदास लिखते या बोलते हुए सामना करने से ही उसकी विजयश्री सुनिश्चित होती है। जिससे उसकी आत्मा कष्टमुक्त होकर पूर्णतः 'तृप्त' होती है। जिस तृप्ति से मानव की आत्मा का सामाजिक, सांस्कृतिक एवं अध्यात्मिक आत्मसम्मान बढ़ता है। अतः ध्यान रहे कि मृत्युलोक में आत्म सम्मान से बड़ा कोई सम्मान अर्थात पुरस्कार नहीं होता। ॐ शांति ॐ