वासना से उपासना की ओर ले जाने का दावा करने वाले समकालीन ढोंगियों के ढोंग प्रायः एक न एक दिन सार्वभौमिक प्रकट हो ही जाते हैं और उल्लेखनीय यह भी है कि ऐसे ढोंगियों से भारतीय सुधारगृह (जेल) भरे पड़े हैं। चूॅंकि यह प्रकृति है और सर्वविदित है कि प्रकृति परिवर्तनशील होती है। जिसका सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक, अध्यात्मिक और आत्मिक सत्य यह है कि यह हमारे व्यक्तित्व को ही नहीं बल्कि अस्तित्व की गुणवत्ता को भी रेखॉंकित करती है। वास्तव में प्रकृति हमारे स्वास्थ्य, सुख और समृद्धि का वरदान है और दूसरी ओर भूतल से लेकर आकाश तक फैला ब्रह्माण्ड है, जिसे सरल शब्दों में कहें तो प्रकृति का अर्थ ही यह होता है कि जो मनुष्य के निर्माण से परे हो और उस पर मानव स्वामित्व न हो सके। जैसे मृत्यु अटल है और आत्मा अमर है जिनका स्वामित्व अभी तक प्रकृति अथवा परम पिता परमेश्वर के ही कर कमलों में है।
उल्लेखनीय है कि प्रकृति ही हमारी प्रवृत्ति को संचालित करती है जिससे हमें यश अथवा अपयश अर्थात मान, सम्मान व अपमान मिलता है। क्योंकि हमारी मनोवृत्ति के चंचल घोड़ों की लगाम प्रकृति के ही हाथों में होती है। जो निश्छल और पवित्र मानी जाती है। परन्तु दुर्भाग्यवश प्राणी लालच के वशीभूत होकर प्राकृतिक नियमों और सामाजिक सिद्धांतो को तिलॉंजलि देते हुए स्वार्थ और कुटिलता के रथ पर सवार होकर अपने संवैधानिक ज्ञान के घमंड में चूर अपने कुकर्मों से निन्दा के पात्र बनते हैं और लाख प्रयत्नों से उक्त निन्दा से बच नहीं पाते हैं। ऐसे स्वार्थी निंदनीय प्रवृत्ति के अनेक डॉक्टरों, इंजीनियरों, उच्च अधिकारियों को ही नहीं बल्कि वरिष्ठ अधिवक्ताओं (वकीलों) और न्यायाधीशों (जजों) को भी मैं अपने अल्पकालीन जीवन के रहस्यमय शोधों के आधार पर जानता हूॅं। जो अपने साथ-साथ अपने समकक्ष मानवीय संवेदनाओं से परिपूर्ण डॉक्टर, विद्वान अधिवक्ता और निष्पक्ष एवं निष्ठावान विद्वान न्यायाधीश रूपी सहयोगियों को भी खुली न्यायालय में कलॅंकित कर रहे हैं।
चूॅंकि प्राकृतिक संरचना मानव संरचना से कहीं अधिक उत्तम और श्रेष्ठ है। जो अद्भुत, अद्वितीय, अकल्पनीय, अविश्वसनीय और अदृश्य है। जिसके अगले क्षण की अपार लीलाओं को आज जनसाधारण से लेकर विज्ञनिक तक कोई भी नहीं जान सका। हालॉंकि बहुत से प्राणी मोक्ष प्राप्ति की लालसा में इधर उधर अज्ञानता की चक्की में पिसते हुए वन वन भटक रहे हैं। परन्तु वह अपने भीतर की परम आत्मा के दर्शन कदापि नहीं करते हैं। जिसके आधार पर वह युवा अवस्था से लेकर बुढ़ापे तक कष्टमय जीवन व्यतीत करते हैं। परन्तु अपने भीतर संगठित दुष्चक्र पूर्ण स्वार्थों का वध नहीं करते हैं।
अन्यथा सर्वविदित है कि पूजनीय सर्वश्री भगवान महावीर जी और महात्मा बुद्ध जी पागल नहीं थे जिन्होंने राजपुत्र होते हुए भी सब कुछ त्याग दिया था। क्योंकि वे भलीभॉंति जानते थे कि प्रवृत्ति "प्रकृति" की दास है और यह भी परम कटुसत्य है कि सब कुछ पाने हेतु सब कुछ त्यागना आवश्यक ही नहीं बल्कि अनिवार्य होता है। सम्माननीयों जय हिन्द
प्रार्थी
डॉ. इंदु भूषण बाली
ज्यौड़ियॉं (जम्मू)
जम्मू और कश्मीर