विवाह एक दिव्य अनुभूति है, जो स्त्री और पुरुष की यौन इच्छापूर्ति का सामाजिक, सांस्कृतिक एवं धार्मिक अनुज्ञापत्र अर्थात लाइसेंस (LICENCE) है। जो प्रमाणित करता है कि उक्त स्त्री और पुरुष दोनों पवित्र विवाह बंधन में बंध कर पति-पत्नी का रूप धारण कर चुके हैं और अपनी यौन तृप्ति के लिए स्वतंत्र रूप से सुखमय जीवनयापन कर सकते हैं। स्पष्ट शब्दों में कहें तो वैवाहिक जीवन के एक दूसरे को दिए अथवा लिए गए सातों वचनों का निष्ठापूर्वक निर्वहन करते हुए भोग अर्थात संभोग अर्थात रतिक्रीड़ा अर्थात कामवासनाओं को संतुलित एवं तृप्त करने हेतु दाम्पत्य जीवन की "रीढ़ की हड्डी" माना जाता है। जिसे संवैधानिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और धार्मिक मान्यता प्राप्त होती है।
उल्लेखनीय है कि विवाह ही संतान उत्पत्ति का मुख्य आधार भी है, जिससे वंश चलता है और संसार में परिवार व बिरादरी का अस्तित्व बना रहता है। दूसरे शब्दों में संतान उत्पत्ति ही सुखमय भविष्य अर्थात बुढ़ापे का सहारा माना जाता है। आप इसे आमों के आम और गुठलियों के दाम भी कह सकते हैं। चूंकि यौन तृप्ति यौवन की आधारभूत आवश्यकता होती है जिसकी पूर्ति में अंडाणु और शुक्राणु के संयोगवश संतान स्वयं ही उत्पन्न हो जाती है अर्थात संतान उत्पत्ति के लिए अलग से संसाधन या परिश्रम नहीं करना पड़ता है, जिसे एक समय में ईश्वरीय वरदान माना जाता था और एक दम्पत्ति द्वारा अनेकों संतानें उत्पन्न होती थीं। उदाहरणार्थ द्वापर युग के महाराजा धृतराष्ट्र और महारानी गांधारी सौ पुत्रों एवं एक पुत्री के माता-पिता बने थे।
वर्णनीय है कि वैवाहिक सुख प्राप्ति हेतु उपरोक्त प्रथा युगों युगों से चलती आ रही है। परन्तु प्रत्येक विवाह सुखमय ही हो यह कहना उचित एवं आवश्यक नहीं है। क्योंकि हमारे धर्मग्रंथ भले ही विवाह को दो आत्माओं का मिलन मानते हैं। परन्तु इसमें अनेक स्थूल शरीर में बंधी आत्माएं एक दूसरे के स्वाभाव, शारीरिक एवं मानसिक दुर्बलताओं के अतिरिक्त कई अन्य असामाजिक तत्वों एवं दुष्टजनों द्वारा फैलाई अनेकों भ्रॉंतियों के कारण विवाह बंधनों में उत्पन्न खटास के कारण अपना समर्थन एवं समर्पण जारी नहीं रख पाते हैं। जिससे उनके लिए पवित्र विवाह जैसा सुखद बंधन एक भयंकर पीड़ा का रूप धारण कर लेता है, जिसके लिए पीड़ित पति अथवा पत्नी असहनीय पीड़ा से छटपटाने लगते हैं और उपरोक्त दुखद कारणों का निवारण करने से अधिक वे पवित्र बंधन से शीघ्र अतिशीघ्र छुटकारा पाने पर बल देते हैं।
उल्लेखनीय यह भी है कि उपरोक्त बंधनों को संवैधानिक रूप से सुचारू रखने हेतु भारत सरकार ने 1955 में हिन्दू विवाह अधिनियम बनाया था जिसे हिंदू विवाह अधिनियम 1955 के नाम से जाना जाता है, जिसमें विवाह के संवैधानिक मौलिक अधिकारों को वर्णित करने हेतु 38 धाराएं लगाई हैं और उन्हें उनके निर्वहन हेतु कड़ाई से लागू भी किया गया है। जिनके फलस्वरूप एक ओर विवाहितों को उनके मौलिक अधिकारों संबंधित जानकारियॉं प्राप्त होती हैं और दूसरी ओर उन्हीं नियमों के आधार पर दोनों पति-पत्नी सुखमय जीवन व्यतीत करते हैं। इसी नियम के आधार पर पति द्वारा पत्नी पर अथवा पत्नी द्वारा पति पर क्रूरता करने से रोका जाता है या उसे माननीय न्यायालय में चुनौती दी जा सकती है और याचिकाकर्ता द्वारा याचिका में दर्शाए गए अपराधों के सिद्ध होने पर प्रतिवादी को दण्ड देने का भी प्रावधान है। इसके अतिरिक्त हिन्दू सभ्यता एवं संस्कृति को भी यथावत रखा गया है।
इसी अधिनियम की धारा 09 के अंतर्गत, भटक चुके दम्पत्तियों अर्थात पृथक हो चुके पति-पत्नियों को अर्थात सात फेरों के संस्कारों को धूलधूसरित कर चुके जोड़ों को अर्थात सात जन्मों की सौगंधों को तार-तार कर चुके वैवाहितों को, पुनः स्थापित करने हेतु अथवा एक साथ रखने को अर्थात एक चारपाई पर सुलाने को अर्थात अपने सहवास के अधिकारों को पुनर्जीवित करने अर्थात बहाल करने के लिए माननीय जनपद न्यायालय की शरण में जा सकते हैं। जहॉं वह अपने पवित्र विवाह को सुचारू रखने में सक्षम हो जाते हैं या पवित्र विवाह सम्बन्धित संस्कारों को कलॅंकित करते हुए विवाहविच्छेद कर लेते हैं।
हालॉंकि सौभाग्यवश उक्त अधिनियम में काउंसलिंग अर्थात परामर्शदाताओं के सहयोग का भी प्रावधान होता है जो पति एवं पत्नी के निजी संबंधों से लेकर पारिवारिक व्यथाओं को भी गंभीरतापूर्वक सुनकर विधिवत रूप से दोनों पक्षों को प्राप्त होता है। जिसके सुखद परिणाम भी सामने आते हैं और टूटते रिश्ते पहले से भी अधिक सुदृढ़ होते देखे गए हैं।
परन्तु दुर्भाग्यवश उपरोक्त परिस्थितियॉं तब आती हैं जब दोनों पक्षों के माता-पिता, भाई बंधु, साले-साढ़ू, भाभियों और सालियों सहित समस्त सगे संबंधी, मित्र, यहॉं तक कि उनके विद्वान बच्चे इत्यादि भी अपने मौलिक कर्तव्यों में विफल हो चुके होते हैं अर्थात जब पीड़ितों को जीवन की कोई भी उम्मीद अर्थात सहारे की किरण दिखाई नहीं देती है और वे धैर्य का परित्याग कर, अंतिम विकल्प के रूप में माननीय न्यायालय का रुख कर लेते हैं।
ऐसा करने वाले जोड़ों को अर्थात सात जन्मों तक साथ निभाने की सौगंध खाए पति-पत्नी को, सामाजिक, सांस्कृतिक एवं धार्मिक ग्रंथों में वर्णित द्वपक्षीय संस्कारों को पांवों तले रौंदने वाले गृहस्थों से लेकर उनके माता व पिता, भाई बंधुओं, जेठ-जेठानियों सहित लेखक की विनम्र प्रार्थना है कि ईश्वर उन्हें सद्बुद्धि दें और माननीय न्यायालय की ओर रुख करने से पहले ठंडे मन से अनेकों बार विचार विमर्श कर लें।
क्योंकि माननीय न्यायालय के माननीय न्यायाधीश द्वारा प्रार्थियों के द्वारा प्रदत्त सहमति विवाहविच्छेद (DIVORCE) प्रार्थनापत्र पर प्रायः मात्र एक बार हस्ताक्षर कर देने के उपरांत वह अपने दाम्पत्य सुखद अधिकार खो देंगे और पुनः कदापि प्राप्त नहीं कर पाएंगे। जिसके उपरांत भरे संसार में वह अपने एहम के मद में चूर, अपनी मूर्खतापूर्ण विफलताओं की सफलताओं का परचम लहराते हुए, अपने दुर्भाग्य को कोसते हुए, ईश्वरीय सौभाग्य का सत्यानाश करते हुए, बच्चों का भविष्य बर्बाद करते हुए अन्ततः वसुधैव कुटुंबकम की सनातन विचारधारा को सम्पूर्ण नष्ट करते हुए सदैव रातों को रोने हेतु नितॉंत अकेले हो जाते जाते हैं। सम्माननीयों जय हिन्द
वरिष्ठ लेखक व पत्रकार, राष्ट्रीय चिंतक, स्वयंसेवक, भ्रष्टाचार के विरुद्ध विश्व की लम्बी ग़ज़ल, राष्ट्रभक्ति एवं मौलिक कर्तव्यों के नारों में विश्व कीर्तिमान स्थापितकर्ता
वार्ड अंक 01, डाकघर व तहसील ज्यौड़ियां, जिला जम्मू, केंद्र शासित प्रदेश जम्मू और कश्मीर, पिनकोड 181202।