मानव और मरघट एक दूसरे के पूरक होते हैं जिसकी कड़वी सच्चाई यह है कि मानव शरीर को एक न एक दिन मरना अवश्य होता है और मृत्यु उपरांत मानवीय विधान यह है कि निष्प्राण व्यक्ति शव कहलाता है जिसका सत्य यह भी है कि शव तो शव ही होता है। भले ही वह शव कितने भी बड़े व्यक्तित्व का हो, पद अनुसार देश के प्रथम व्यक्ति का ही क्यों न हो, धनवान अथवा विद्वान ही क्यों न हो, उसे घर में नहीं रखा जाता और विडंबना देखिए कि जिस घर के लिए वह मानव जीवनभर मानवीय संवेदनाओं को त्यागकर भ्रष्टाचार का अनुसरण करता रहा था उसे उसी घर में, उसी के घरवाले, चौबीस घंटे भी नहीं रखते और शीघ्र अतिशीघ्र मरघट अर्थात श्मशान में ले जाकर उसकी अन्त्येष्टि क्रिया कर दी जाती है, जिसे हिंदू धर्मों के सोलह संस्कारों में से एक माना जाता है।
प्रश्न गंभीर हैं कि यह सब जानते हुए भी हम भ्रष्टाचार का अनुसरण क्यों करते हैं? अंत में सूखी लकड़ियों की चिता पर बेटों द्वारा लगाई गई आग में जलने से पहले क्यों जीवनभर गीली लकड़ियों की भॉंति सुलगते रहते हैं? बचपन के आनन्द को हम क्यों नहीं लेते? यौवन का सुख हम प्राप्त क्यों नहीं करते? और तो और भगवान श्री महावीर जी द्वारा दिए मुक्ति के संदेश "जियो और जीने दो" का हम क्यों अनुसरण नहीं करते? क्यों हम स्वयं सुखपूर्वक नहीं जीते और दूसरों को भी सुखमय जीने नहीं देते? क्यों हम सदैव नाशवान इच्छाओं की पूर्ति हेतु संघर्षरत रहते हैं?
हालॉंकि हमें यह भी ज्ञान होता है कि भ्रष्टाचार रूपी वासनाएं कभी तृप्त नहीं होतीं और हम यह भी जानते हैं कि वासनाओं की आग को बुझाने का जितना अधिक प्रयास किया जाता है वह उतना ही ज्यादा भड़कती हैं। इसलिए प्रश्न यह भी है कि क्या हम न्यायाधीश के रूप से लेकर, साहित्यिक पुरस्कारों से सम्मानित विद्वान, अधिवक्ता, डॉक्टर अर्थात विशेषज्ञ, शिक्षक, अभियंता, सैनिक, भारतीय प्रशासनिक सेवा अधिकारी एवं उनके चपरासियों तक, के रूपों में भ्रष्टाचार की मृगतृष्णा में भटकते हुए वैतरणी नदी को पार कर सकते हैं? अर्थात भारतीय संस्कृति द्वारा मानवीय अनमोल जीवन हेतु निर्धारित सुखों के एक क्षण को भी क्या हम सुकून से जी पाते हैं? अंततः जौ के आटे के पिंडों हेतु क्यों, क्यों और क्यों हम मानव होते हुए भी अमानवीय कृत्य करते हुए क्रूरतापूर्ण भ्रष्टाचार करते हैं? क्यों हम तपस्या को त्यागकर वेश्या को गले लगाते हैं?
उल्लेखनीय है कि हमारे हिन्दू महाग्रंथों में से एक ग्रंथ "गीता" में भी भगवान श्रीकृष्ण जी ने स्वयं अपने उपदेश में कहा है कि हम खाली हाथ मृत्युलोक में आए थे और खाली हाथ ही वैकुंठ को जाएंगे। कर्मों को छोड़कर सबकुछ यहीं रह जाएगा। अर्थात उन्होंने मानव को मानव और मरघट के आवागमन से छुटकारा पाने के लिए सरल राह प्रशस्त की हुई है। जिसका मार्ग भ्रष्टाचार न होकर मानवीय मूल्यों पर आधारित सद्भावनापूर्ण संवेदनाएं हैं जिस युक्ति पर चलकर हम मुक्ति पा सकते हैं। सम्माननीयों जय हिन्द
प्रार्थी
इंदु भूषण बाली
व्यक्तिगत रूप से याचिकाकर्ता (पीटीशनर इन पर्सन)।
वरिष्ठ अंतरराष्ट्रीय लेखक व राष्ट्रीय पत्रकार, राष्ट्रीय चिंतक, आरएसएस का स्वयंसेवक, भ्रष्टाचार के विरुद्ध विश्व की लम्बी ग़ज़ल, राष्ट्रभक्ति एवं मौलिक कर्तव्यों के नारों में विश्व कीर्तिमान स्थापितकर्ता
एवं
भारत के राष्ट्रपति पद का पूर्व प्रत्याशी,
वार्ड अंक 01, डाकघर व तहसील ज्यौड़ियां, जनपद जम्मू, केंद्र शासित प्रदेश जम्मू और कश्मीर, पिनकोड 181202।