समस्या और शिकायत !
(आलेख)
जम्मू और कश्मीर कला संस्कृति एवं भाषा अकादमी जम्मू द्वारा आयोजित सात दिवसीय बहुभाषी कनिष्ठ कहानी महोत्सव के आयोजन का दूसरा दिन था। जो हिंदी भाषा को समर्पित था। जिसमें अकादमी के कर्मचारियों की कमीं की समस्या का समाधान करते हुए मंच सचिव की व्यवस्था की गई थी। जो आज के कार्यक्रम का कुशलतापूर्वक संचालन कर रही थीं। जिसने अपनी योग्यता का लोहा मनवाते हुए और सम्पूर्ण स्त्री जाति के ज्ञान को प्रदर्शित करते हुए कार्यक्रम का शुभारम्भ किया था। उसकी शुद्ध हिन्दी और मधुर शब्दावली उसका सशक्त परिचय स्वयं दे रही थी। जो स्वतः प्रमाणित कर रही थी कि वे एक मंजी हुई व्यवसायिक मंच संचालिका हैं। जिसके प्रबंधन के लिए अकादमी और अकादमी के प्रशासनिक अधिकारी आदरणीय सचिव श्री भरथ सिंह मन्हास जी, सांस्कृतिक अधिकारी श्री शेख शाहनवाज़ जी और सम्पादक श्रीमती रीटा खड़याल जी एवं अन्यों को साधुवाद देना न तो चाटुकारिता की श्रेणी में आता है और न ही अतिश्योक्ति है। चूंकि सांच को आंच नहीं होती है।
कोयल के मधुर गीत की भांति मंच संचालिका के स्वर के.एल. सहगल सभागार में उपस्थित अतिथियों को मंत्रमुग्ध कर रहे थे। जो मंच पर आसीन करने हेतु आमंत्रित वरिष्ठ विद्वानों की सम्पूर्ण साहित्यिक उपलब्धियों पर प्रकाश डालकर उसका सशक्त परिचय दे रही थीं। जिसे अकादमी का सराहनीय एवं स्वर्णिम चरण-चिन्ह माना जा सकता है। चूंकि अकादमी का विकास भी अनुशासन पर ही निर्भर करता है और अनुशासन ही घर, मुहल्ला, राज्य और देश के सशक्त चरित्र का चित्रण करता है। इसलिए जम्मू और कश्मीर कला संस्कृति एवं भाषा अकादमी और अकादमी के सचिव श्री भरथ सिंह मन्हास जी का मौलिक कर्तव्य बनता है कि वह उपरोक्त कार्यक्रमों में अनुशासन का पालन करते हुए माननीय सशक्त प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी जी द्वारा आरंभ किए पारदर्शी भारत को गौरवान्वित करें। जिससे स्पष्टता न केवल अकादमी और अकादमी के कार्यक्रमों को चार चांद लगेंगे बल्कि हमारा सम्पूर्ण राष्ट्र "अंतरराष्ट्रीय" स्तर पर अभिनंदन करेगा। क्योंकि राष्ट्र हमसे और हमसे राष्ट्र परिपूर्ण होता है और सर्वविदित है कि राष्ट्र सर्वोपरि होता है।
कार्यक्रम को आगे बढ़ाते हुए मंच संचालिका ने एक के बाद दूसरे और दूसरे के उपरांत तीसरे विद्वान साहित्यकार को मंच पर आसीन कराते हुए उनकी साहित्यिक उपलब्धियों की जानकारियां भी सार्वजनिक सांझा की थीं। जिसमें उन्होंने स्पष्ट किया था कि उक्त विद्वान साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित हैं। जिससे सभागार में आमंत्रित अतिथियों सहित मेरी भी जिज्ञासा बढ़ी थी। चूंकि मेरे शोध के अनुसार साहित्य अकादमी दिल्ली के प्रशासनिक एवं विशेषज्ञों द्वारा जम्मू और कश्मीर के किसी भी हिंदी भाषी विद्वान को साहित्य अकादमी पुरस्कार के योग्य नहीं माना हुआ है और ना ही हिंदी भाषा के किसी स्थानीय रचनाकार को साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया हुआ है। जो जम्मू और कश्मीर केंद्र शासित प्रदेश के हिंदी लेखकों के समक्ष चुनौतीपूर्ण प्रश्नचिन्ह है। जो विशेषकर मंचासीन विद्वानों के लिए सिरदर्द बन चुका है। जिसके कारण उनका स्वाभिमान आशंकाओं से घिर चुका है। इसके अलावा किसी भी विद्वान की विद्वता, विवेक और बुद्धि का क्षेत्रफल अब तक इतना नहीं बढ़ा कि वह साहित्य अकादमी के हिंदी परामर्श बोर्ड का एक सदस्य भी बन सके।
परन्तु मंच से स्पष्ट बताया गया था कि उपरोक्त विद्वान साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित हैं। जिसका सत्य जानने की अभिलाषा रूपी प्यास को शान्त करने हेतु सबसे लम्बी आयु वाले साहित्यकार के समक्ष मैं अपने अनमोल प्रश्न के साथ खड़ा हो गया था। जबकि उन्हें किसी दूसरे साहित्यकार ने अपनी पुस्तक अर्पित करने हेतु घेर रखा था। आदरणीय बुजुर्ग साहित्यकार को समय मिलते ही उन्होंने मुझसे सादर पूछा कि बताएं आपकी क्या समस्या है? मैंने अपनी असाधारण समस्या को उजागर करते हुए उनसे विनम्रतापूर्वक पूछा कि माननीय आपको हिंदी भाषा में साहित्य अकादमी पुरस्कार से कब सम्मानित किया था और हिंदी की किस पुस्तक पर आपको उक्त सम्मान प्राप्त हुआ? जिसपर उन्होंने क्षेद प्रकट करते हुए बताया कि उन्हें अब तक हिंदी भाषा में कोई साहित्य अकादमी पुरस्कार प्राप्त नहीं हुआ है। मैंने पुनः पूछा कि मंच संचालिका जी ने तो आपको साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित साहित्यकार बताया था। तो उन्होंने मुस्कुराते हुए बताया कि उसका उत्तर भी वही दे सकतीं हैं। परन्तु मैं इतना बता सकता हूॅं कि मैं कश्मीरी भाषा में साहित्य अकादमी पुरस्कार प्राप्त कर चुका हूॅं। संभवतः मंच संचालिका जी ने उसी का उल्लेखित गुणगान किया होगा।
उनसे विदा लेने के तुरंत बाद पेट की भूख को तृप्त करने से अधिक मैंने अपने प्रश्नों की अग्नि को शांत करने पर बल दिया था और आदरणीय मंच संचालिका के समक्ष उपस्थित हो गया था। जहां जिज्ञासावश मैंने अपने प्रश्नों का पिटारा खोल दिया था। जिसपर उन्होंने अपने शांत स्वभाव एवं बुद्धि का परिचय देते हुए संक्षिप्त सा उत्तर देते हुए बताया था कि अकादमी ने जो उन्हें दिया था उसी को उन्होंने अपनी शब्दावली के माध्यम से आगे परोस दिया था। इसलिए उक्त समस्या के समाधान हेतु कृपया आप अकादमी के आयोजकों से संपर्क करें। अब समस्या यह थी कि आदरणीय सचिव श्री भरथ सिंह मन्हास जी यहां उपस्थित नहीं थे। चूंकि उन्होंने उद्घाटन समारोह में ही स्पष्ट कर दिया था कि वो अगले दिन कश्मीर में उपस्थित होंगे। उल्लेखनीय है कि अकादमी सचिव आदरणीय श्री भरथ सिंह मन्हास जी अपने मौलिक कर्तव्यों के निर्वहन पर सशक्त एवं कठोर हैं। जिसकी न्यायिक पूर्ति हेतु संभवतः वे कश्मीर में चल रहे कार्यक्रमों को युद्ध स्तर चलाने के लिए प्रयासरत थे। इसलिए मेरा प्रश्न मात्र प्रश्न बनकर ही रह गया। जबकि मैं समस्या के समाधान हेतु लालयित था और यह भी भलीभांति जानता था कि समस्या और शिकायत के शाब्दिक भेद को मात्र और मात्र आदरणीय सचिव श्री भरथ सिंह मन्हास जी ही समझ सकते हैं। अर्थात उनके अतिरिक्त समस्या और शिकायत के अर्थपूर्ण दृष्टिकोण को कोई अन्य समझ नहीं सकेगा। इसलिए अपनी समस्याओं के समाधान हेतु उनकी प्रतिक्षा के अलावा मेरे पास अन्य कोई विकल्प नहीं था।
जबकि मेरी समस्याओं में छिपे अनेकों प्रश्न सार्वजनिक रूप से चीख चीखकर साहित्यिक विद्वानों से पूछ रहे थे कि क्या हिंदी भाषा का साहित्य अकादमी पुरस्कार डोगरी और कश्मीरी भाषा के साहित्य अकादमी पुरस्कारों से अधिक मूल्यवान है? चूंकि डोगरी भाषा रूपी एक पत्थर को हटाने पर कई साहित्यकार उभर आते हैं और यही परिदृश्य कश्मीरी भाषा में भी देखने को मिल रहा है। परन्तु हिंदी भाषा के स्नातकोत्तर महाविद्यालयों से उत्तीर्ण शोधार्थियों एवं प्रोफेसरों से प्रश्न पूछना स्वाभाविक एवं राष्ट्रहित में है। क्योंकि जो साहित्यकार अपने नाम से पहले डॉ. और प्रोफेसर शब्द का प्रयोग करते हुए गर्व के स्थान पर अंहकार दर्शाते हैं। वे हिंदी भाषा में साहित्य अकादमी पुरस्कार क्यों प्राप्त नहीं कर सके का उत्तर देने में अक्षम हो जाते हैं? या साहित्य अकादमी दिल्ली द्वारा कला और संस्कृति को समर्पित उनके सम्पूर्ण जीवन को रौंदते हुए उन्हें अयोग्य क्यों प्रमाणित किया जा रहा है?
उनसे क्षमा प्रार्थी होते हुए मैं अकादमी के सचिव श्री भरथ सिंह मन्हास जी से हिंदी भाषा के अंतरराष्ट्रीय विकास हेतु यह पूछना अनिवार्य समझता हूॅं कि वह हिंदी भाषा के आयोजित कार्यक्रमों में हिंदी में अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्तकर्ताओं अर्थात विश्व कीर्तिमान स्थापित करने वाले साहित्यकारों को प्राथमिकता के आधार पर मंचासीन क्यों नहीं करते? क्या उन्हें मंचासीन करना वर्जित है? विशेषकर जिन्होंने अपनी विद्वता का प्रदर्शन करते हुए अकादमी अनुदान से वंचित रहते हुए भी अपनी पुस्तकों को स्वतः प्रकाशित कर विश्व कीर्तिमान स्थापित कर दिया हो। जिन्होंने राष्ट्रहित में राष्ट्रपति पद का पूर्व प्रत्याशी होने का इतिहास लिखा हो। जिन्होंने शुद्ध हिंदी भाषा के ग़ज़ल संग्रह से "राष्ट्र को संदेश" दिया हो। जिन्होंने भ्रष्टाचार पर आधारित विश्व की सबसे लम्बी ग़ज़ल लिखने का कीर्तिमान स्थापित किया हो और अपनी असाधारण योग्यता के आधार पर माननीय जम्मू और कश्मीर और लद्दाख उच्च न्यायालय में स्वयं याचिकाकर्ता के रूप में माननीय न्यायाधीशों के समक्ष संवैधानिक न्याय की मांग हेतु खड़ा हो गया हो।
उपरोक्त बिंदुओं के आधार पर अकादमी से मेरा पूछना न्यायोचित होगा कि क्या लेखन के क्षेत्र में उपरोक्त कर्म बड़े अपराध माने जाते हैं? क्या शुद्ध हिंदी में ग़ज़ल संग्रह लिखना साहित्य के क्षेत्र में कलंकित कार्य है? क्या अपनी पुस्तकें स्वयं प्रकाशित कर विश्व कीर्तिमान स्थापित करना योग्यता के क्षेत्र में अयोग्यता का भद्दा प्रदर्शन है? यदि नहीं तो ऐसे विद्वानों को मंचासीन न करने के पीछे अकादमिक समस्या क्या है? क्यों अकादमी बार-बार कतिपय निर्धारित विद्वानों को ही मंचासीन करने पर तुली हुई है? क्यों वह आमंत्रित अतिथियों को बोरियत का एहसास करवाती है? अकादमी वर्तमान "समस्या एवं याचिका लेखन" पर कोई भी कार्यक्रम आयोजित क्यों नहीं कर रही? क्या "समस्या और याचिका लेखन" कला और संस्कृति के क्षेत्र में समकालीन आवश्यकता नहीं है? जिसके लिए डोगरी भाषा में उत्कृष्ट योगदान के लिए पद्मश्री सम्मान से सम्मानित साहित्यकार श्री मोहन सिंह सलाथिया जी अकादमी सचिव श्री भरथ सिंह मन्हास जी की उपस्थिति में बार-बार अकादमी से आग्रह कर चुके हैं।
यही नहीं बल्कि समसमायिक समस्या यह भी है कि समस्याओं को शिकायत की संज्ञा दे दी जाती है जबकि समस्या और शिकायत में धरा और आकाश का अंतर होता है। क्योंकि समस्या घरेलू, निजी, सामाजिक, आर्थिक, राज्य स्तरीय, राष्ट्रीय स्तरीय और अंतरराष्ट्रीय भी हो सकती है। समस्या घरेलू और अंतरराष्ट्रीय भी हो सकती है। जिनका मात्र समाधान करना होता है। परन्तु शिकायत को सुनने के उपरांत जांच की आवश्यकता होती है और तथ्यों के आधार पर शिकायतकर्ताओं को न्याय और विरोधियों को दण्डित किया जाता है। क्योंकि समस्याओं और शिकायतों का निवारण होना अनिवार्य ही नहीं बल्कि परम आवश्यक होता है। नहीं तो एक छोटी सी चिंगारी पूरे वन को जला कर राख कर देती है। जिनका समय पर न्यायिक सुधार होना चाहिए अन्यथा देरी से मिला न्याय "अन्याय" का रूप धारण कर लेता है। जिसे माननीय भारतीय न्यायपालिका सहित माननीय उच्चतम न्यायालय के माननीय विद्वान मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति श्री डी.वाई. चंद्रचूड़ जी भी सहर्ष स्वीकार करते हैं।
अंततः आयोजित सप्ताहिक बहुभाषी कनिष्ठ कहानी महोत्सव सुचारू रूप से अपने निर्धारित लक्ष्य की पूर्ति हेतु अग्रसित हो रहा है। जिसमें कहानीकारों और आमंत्रित अतिथियों के लिए मूलभूत सुविधाओं के अंतर्गत पीने के शुद्ध पानी से लेकर स्वास्थ्यवर्धक बढ़िया स्वादिष्ट भोजन तक की सुव्यवस्थित व्यवस्था के लिए पुनः प्रशासनिक अधिकारी आदरणीय सचिव श्री भरथ सिंह मन्हास जी और उनके समस्त विद्वान एवं कुशल सहयोगी साधुवाद के पात्र हैं। क्योंकि उनके नवीनतम प्रबंधन में न तो कोई समस्या है और ना ही कोई शिक़ायत है। जय हिन्द। सम्माननीयों ॐ शांति ॐ
द्वारा
इंदु भूषण बाली
व्यक्तिगत रूप से याचिकाकर्ता (पिटीशनर इन पर्सन)
वरिष्ठ लेखक व पत्रकार, राष्ट्रीय चिंतक, स्वयंसेवक, भ्रष्टाचार के विरुद्ध विश्व की लम्बी ग़ज़ल, राष्ट्रभक्ति एवं मौलिक कर्तव्यों के नारों में विश्व कीर्तिमान स्थापितकर्ता
एवं
भारत के राष्ट्रपति पद का पूर्व प्रत्याशी,
वार्ड अंक 01, डाकघर व तहसील ज्यौड़ियां, जिला जम्मू, केंद्र शासित प्रदेश जम्मू और कश्मीर, पिनकोड 181202।