कर्म मानव जीवन के आधार बिंदु हैं। वह किस रूप में प्रकट हो जाएं कोई नहीं जानता। अर्थात कर्म वह बीज हैं जिनके उत्पन्न होने पर पेड़ बनता है और उक्त पेड़ पर समय समय पर लगने वाले फल फूलों का मानव अपने जीवनकाल में जीवनभर सेवन करता रहता है। अर्थात जन्म से मृत्यु तक सुख और दुःख का अनुभव करता है और उक्त दुखों से सदैव मुक्ति पाने का आधार भी कर्म ही होते हैं। इसलिए मानव को सदैव श्रेष्ठ कर्मों को प्राथमिकता देनी चाहिए। जिनमें सर्वप्रथम अपनी बुद्धि को शुद्ध करना सबसे श्रेष्ठ कर्म माना जाता है।
जिसके आधार पर कर्मों के रसपान हेतु सम्पूर्ण सृष्टि कर्मक्षेत्र की सीमाओं को तय करती है। जिनमें रिश्ते नाते उस वृक्ष की जड़ों, शाखाओं, पत्ते एवं टहनीयों की भूमिका निभाते हैं। जबकि मानव की संरचना उसके माता पिता करते हैं। माताश्री की कोख से उत्पन्न अन्य प्राणियों को भाई बहन की संज्ञा दे दी जाती है। बाल्यावस्था में संग खेले साथियों को सखा और सखियों का नाम दिया जाता है। शिक्षा देने वालों को गुरु की पदवी दी जाती है। विवाह संबंध स्थापित होने पर स्त्री पुरुष को पति पत्नी का रूप दिया जाता है। जिन्हें सार्वजनिक एवं संवैधानिक रूप से संतान उत्पन्न करने का मौलिक अधिकार मिलता है। जिस अधिकार से वे अपने बच्चे उत्पन्न कर लेते हैं। जिसके आधार पर मानव के कर्मक्षेत्र में और भी वृद्धि हो जाती है। अर्थात कर्मक्षेत्र का वृक्ष विशालकाय वृक्ष बनकर उभरता है और कर्मों के अनुसार एक दूसरे को सुख व दुःख देने का कार्य आरम्भ हो जाता।
ध्यान रहे कि मानव जीवन की वास्तविक कड़वी सच्चाई यह है कि उपरोक्त रिश्ते कर्मों की पूर्ति के मात्र एक पात्र होते हैं। जो कर्मों का फल प्राप्त करने का साधन बनते हैं। जिसमें सास ससुर, साले सालियां यहां तक कि बेटे बेटियां सब कर्मों का फल भोगने में साधन बनते हैं। जिससे अधिक उपरोक्त रिश्तों का कोई महत्व नहीं होता है। इसलिए रिश्तों को महत्व देना आधुनिक युग में "पागलपन" के सिवाय कुछ नहीं है। चूंकि मानव जीवन के यथार्थ में समस्त रिश्ते नाते स्वार्थ के सागर में गोते लगाते हुए देखे जा सकते हैं।
उल्लेखनीय है कि मानव जंगल में रहते हुए भी प्रसन्नतापूर्वक झूमते हुए जीवन व्यतीत करता था और अब वही मानव अपने कर्मों के अनुसार स्वयं द्वारा बनाई गई बड़ी बड़ी कोठियों के रूप में दण्ड भोग रहा है। चूंकि कर्मों ने उक्त कोठियों को कारागार में परिवर्तित कर दिया हुआ है। उदाहरणार्थ कोई सरकारी अथवा निजी सेवा में कठोर दण्ड भोग रहा है, तो कोई दुकान रूपी कारागार में दण्ड भोग रहा है और कोई अद्वितीय बंगले रूपी कारागार में दण्ड भोग रहा है। कहने का अभिप्राय यह है कि समस्त मानव जाति विभिन्न रूपों में कारागार दण्ड भोग रही है। जबकि सत्य यह है कि आज भी मानव को जाले लगे कमरों में सुकूनभरा जीवनयापन करते हुए ही नहीं बल्कि झोंपड़ियों में राजसुख भोगते हुए देखा जा सकता है। अर्थात कर्म फल वह फल है जिससे ईश्वरीय अवतार भी बच नहीं पाए।
उदाहरणार्थ सर्वविदित है कि द्वापर युग में श्रीकृष्ण जी माताश्री देवकी की कोख से कारागार में अवतरित होकर अपने पिताश्री वासुदेव जी के कंधों पर सवार होकर माताश्री यशोदा और पिताश्री नंद के घर पहुंच गए थे और माताश्री यशोदा की नवजात पुत्री पूर्व कर्मों की भेंट चढ़ गई थी। ऐसे में जब श्रीकृष्ण 14 वर्षों के उपरांत माताश्री देवकी को कारागार से मुक्त कराने आए तो माताश्री देवकी ने श्रीकृष्ण जी से पूछा कि बेटा तुम तो ईश्वर हो, ऐसे में तुमने हमें पहले क्यों मुक्त नहीं करवाया? तब श्रीकृष्ण जी ने उत्तर दिया कि मैं भी आपको आपके पिछले जन्मों के कर्मफल के कारण आपको कर्मफल भोगने से पहले मुक्त नहीं कर सकता था। तब माताश्री देवकी ने पूछा कि मैं कौन से कर्मफल का दण्ड भोग रही थी? तब श्रीकृष्ण जी ने मुस्कुराते हुए बताया कि त्रेता युग में मैं राम था और आपने मुझे माताश्री कैकेई के रूप में 14 वर्षों के बनवास का आदेश दिया था। इसलिए 14 वर्षों की समयावधि समाप्त होते ही मैं आपको छुड़ाने आ गया हूॅं। तब भावनाओं में बहते हुए माताश्री देवकी ने पूछा कि यदि मैं कैकेई हूॅं तो फिर कौशल्या कौन है? जिसके उत्तर में श्रीकृष्ण जी ने पुनः मुस्कुराते हुए कहा कि आपने अपनी जिस सहेली के पास मेरे जन्म लेते ही मुझे 14 वर्ष पहले भेजा था। जिसका नाम यशोदा मैया है।
अतः मानव अपने सम्पूर्ण मानवजीवन में अपने अच्छे कर्मों का अच्छा और बुरे कर्मो का बुरा फल भोगता रहता है। जिसे दुःख और सुख की अनुपम संज्ञा दी गई है। इसलिए प्रत्येक मानव को अपने अच्छे बुरे कर्मों के भुगतान में अपने माता पिता, बेटी बेटे, भाई भाभी, सास ससुर, साले सालियों, चचेरे भाई बहनों, मित्र वर्ग अथवा समाज को दोषी ठहराने से अच्छा है कि वह कारागार से मुक्ति एवं भविष्य को सुखमय बनाने हेतु अतीत को भूलकर अपने वर्तमान कर्मों का सार्वजनिक सुधार करे। ॐ शांति ॐ