कहते हैं कि एक बार सम्मान तथा यौवन चला जाए तो वह लौटकर नहीं आता है। उक्त कथन पूरी तरह असत्य प्रमाणित हो रहा है। चूंकि मेरे विरोधी साजिशकर्ताओं ने मुझे जीवनभर क्रूरतम से क्रूरतम यातनाएं दी थीं। जिससे मेरा "सम्मान" मिट्टी में मिल गया था। यही नहीं मेरे परिचितों एवं प्रत्यक्षदर्शियों ने मुझे कुबड़े की सूरत में अनेक बार देखा है। क्योंकि निरंतर मानसिक प्रताड़ना में तनाव के बोझ से मैं झुक गया था।
सर्वविदित यह भी है कि मैं समाचार-पत्र असहनीय पीड़ा के कारण रोते-रोते बेचता था। जिसके लिए मुझे शाम के चार बज जाते थे। सत्य तो यह भी है कि उक्त दिनों की पीड़ाओं का स्मरण करते ही मेरी हृदयविदारक आह निकल जाती है।
ऐसे में मेरी प्राणप्रिया धर्मपत्नी श्रीमती सुशीला बाली के मनमस्तिष्क पर क्या आघात पहुंचता होगा? यह सर्वसाधारण जनमानस की समझ से परे ही नहीं बल्कि वश से बाहर की बात है। चूंकि मेरे असंख्य ऑंसूओं के बलिदान होने का मूल्य मात्र 120 से 150 रुपए प्रति दिन होता था। जिसे मैं उसकी झोली में डाल देता था। जबकि उन दिनों श्रमिकों की दिहाड़ी 250 रुपए प्रति दिन हुआ करती थी। ऐसे में घर के चूल्हे के व्यय का भार और बच्चे को टिफिन देने का मौलिक कर्तव्य निभाना वही जानती है। क्योंकि "जिस तन लागे, सो तन जानें" की आलौकिक पीड़ा की "आलौकिकता" का अर्थ मेरी धर्मपत्नी के अलावा कौन जान सकता है?
सर्वविदित है कि उन दिनों मेरे अपने सगे संबंधी भी मेरे विभागीय भ्रष्ट अधिकारियों के भ्रष्टाचार के विरुद्ध संघर्षरत होने के कारण और राष्ट्रीय मौलिक कर्तव्यों की पूर्ति करने के सम्पूर्ण विरोधी थे। सब के सब एक जुट होकर मुझे दंडित करने के पक्षधर थे। जिसके चलते मेरे तपेदिक रोग का उपचार भी नहीं करवाना चाहते थे और ना ही उन्होंने करवाया था। उसी उपचार के लिए मैंने राज्य सरकार से लेकर केंद्र सरकार तक और रेडक्रास से लेकर विश्व स्वास्थ्य संगठन तक के द्वार खटखटाए थे। यही नहीं तपेदिक रोग की बहुमूल्य दवाइयों के लिए मैंने उपभोक्ता न्यायालय का दरवाजा भी खटखटाया था। जिसमें विजयी होने के बावजूद भी दुर्भाग्यवश मुझे दवाइयां नहीं मिली थीं। ऐसे बीमार पति के साथ जीवनयापन करने वाली धर्मपत्नी श्रीमती सुशीला बाली "साधारण नारी" नहीं बल्कि देवी तुल्य "देवी" ही हो सकती है। जिसकी वेदनापूर्ण पीड़ा मेरे सिवा दूसरा कौन समझ सकता है?
परन्तु अपने कर्मों के अनुसार वर्तमान समय के चक्रव्यूह में फंसना भी अति आवश्यक था। जिससे अपने परिवार को निकालना भी अब मेरे लिए सरल नहीं है। इसलिए ईश्वरीय कृपा से यह कार्य भी मैंने "शनिदेव" जी एवं "राजा मंडलीक" जी के श्रीचरणों में छोड़ रखा है। जिनपर मेरी सम्पूर्ण आस्था है। जो यह भी जानते थे कि षड्यंत्रकारी मेरे बच्चों को मुझसे अलग किए बिना मुझे पराजित नहीं कर सकते थे और परिवार के साथ रहकर मैं भी अपने विभाग को हरा नहीं सकता था।
इसलिए षडयंत्र के अंतर्गत षड्यंत्रकारियों ने सर्वप्रथम मेरे बेटे को उकसाकर मुझसे अलग किया और फिर मुझे मेरे सम्पूर्ण परिवार से अलग कर दिया था। जिसके चलते पुलिस चौकी ज्यौड़ियां में मुझे मिट्टी में मिलाया गया था। जहां कभी मेरी तूती बोलती थी। जिससे मेरा "सम्मान" चला गया और शारीरिक एवं मानसिक रूप से मैं पहले ही अशक्त था। जिसके आधार पर मैं दुनिया में नितांत अकेला हो गया था।
परन्तु कहते हैं कि ईश्वर जो करते हैं मानव जीवन के अच्छे के लिए ही करते हैं। इसलिए ईश्वर के आशीर्वाद के होते हुए मेरा अहित कैसे हो सकता था? जिसके आधार पर सम्पूर्ण विश्व की भ्रष्ट व्यवस्था की ऑंखें खोलने के लिए "करोना महामारी" का उदय हुआ था। उसीके चलते मुझे माननीय जम्मू और कश्मीर उच्च न्यायालय में याचिका दायर करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था। चूंकि सभी न्यायिक महानुभाव और अधिवक्ता "टेलीफोन" पर उपलब्ध थे। जिसका मुझे भरपूर लाभ मिला और मैं अपनी योग्यता के आधार पर सफल भी हुआ। क्योंकि मेरी याचिका मेरे विद्वान बेटे ने पहले ही बनाई हुई थी और मुझे विद्वान सिद्ध करने हेतु वे मेरी पुस्तकों को भी प्रकाशित कर चुका था। जिसके आधार पर मैं सफलता की सीढ़ियां चढ़ता गया था। जिसमें मेरे फेसबुक मित्रों का भी अतुलनीय योगदान है।
हालांकि यह एकांतवास बहुत पीड़ादायक है। परन्तु उपरोक्त एकांतवास के बिना साहित्यिक क्षेत्र में और माननीय जम्मू और कश्मीर और लद्दाख उच्च न्यायालय में विजयश्री प्राप्त करना भी टेढ़ी खीर थी। जिसके लिए षड्यंत्रकारियों की लात मेरे कूबड़ को सीधा करने में वरदान प्रमाणित हुई। जिसके लिए मैं अपने षड्यंत्रकारियों का हृदय तल से आभार व्यक्त करने लगा और अपनी धर्मपत्नी श्रीमती सुशीला बाली को "आलौकिक देवी" के रूप में स्मरण करने लगा। जो मेरे सिवा कोई नहीं जानता। जिससे एक ओर मेरा आत्मविश्वास के बल पर समाज में स्वतः धीरे-धीरे सम्मान होने लगा था और दूसरी ओर माननीय जम्मू और कश्मीर और लद्दाख उच्च न्यायालय के माननीय विद्वान न्यायाधीश मेरी व्यथा पर विचार करने लगे थे। जिसके कारण मेरा खोया हुआ "सम्मान" और वृद्धावस्था में यौवन पुनः लौट आया है। अर्थात 60 वर्षीय आयु की वृद्धावस्था में मुझे यौवन का अनुभव होने लगा है। जिसके लिए सर्वप्रथम मेरी मां तुल्य बड़ी भाभी ने सार्वजनिक यह एहसास कराते हुए मुझे कहा था कि "भूषण तुझे तो मरियल सी हालत में हम छोड़कर आए थे और अब तू तो आकर्षक युवा बनकर प्रकट हुआ है"।
वास्तविकता यही थी कि मैं अपने बड़े भाई कर्नल राज मनावरी जी की "छंदमुक्त डोगरी कविता : शिल्प ते शैली" नामक पुस्तक के लोकार्पण समारोह में टाई सहित सूटबूट में आकस्मिक सम्मिलित हुआ था। जहां डोगरी संस्था जम्मू के साहित्यकारों सहित बहुत से लेखकों को भी पहली बार ज्ञान हुआ था कि इंदु भूषण बाली और कर्नल राज मनावरी सगे भाई हैं। चूंकि मेरा साहित्यिक नाम "परवाज़ मनावरी" लोकप्रिय नहीं है। परन्तु ऐसा कोई लेखक नहीं है जो मेरे द्वारा छोड़े गए लेखनीय ब्रह्मास्त्रों के प्रभाव से प्रभावित या परिचित न हो। जिसका श्रेय मेरे विद्वान बेटे तरुण बाली एवं अलौकिक शक्ति से परिपूर्ण "देवी तुल्य" मेरी धर्मपत्नी श्रीमती सुशीला बाली को जाता है। जिसे पुनर्मिलन से पहले "साक्ष्यों" के आधार पर सामाजिक, पारिवारिक परिवेश में ही नहीं बल्कि माननीय जम्मू और कश्मीर और लद्दाख उच्च न्यायालय में दायर विभिन्न याचिकाओं पर सार्वजनिक सिद्ध कर प्रमाणित करूंगा। जो धर्मपत्नी के प्रति जागरूक पति और बच्चों के प्रति अच्छे पिता के रूप में मेरा मौलिक दायित्व है। जिसके लिए मात्र अपने प्रश्नों पर प्रतिवादियों के जवाबों की प्रतीक्षा में हूॅं।
अतः तब तक अपने लक्ष्य को प्राप्त करने हेतु हृदय तल से प्रयासरत हूॅं। चूंकि एक साधक ने साधना उपरांत मुझे कहा था कि करो वह जो ईश्वर की इच्छा हो और होगा वह जो आपकी कामना होगी। जिसके आधार पर कहना अतिश्योक्ति नहीं होगी कि विद्वता सरकारी ऊॅंचे "पदों" से सिद्ध नहीं होती और न ही शिक्षा संस्थानों से प्राप्त विद्या वाचस्पति की "उपाधियों" से प्रमाणित होती हैं। अर्थात विद्वता तो तप, तपस्या, त्याग, ब्रह्मचर्य, बलिदान एवं राष्ट्रीय मौलिक कर्तव्यों जैसे शुभ कर्मों के ज्ञान से स्वयं ही प्रकाशमान हो जाती है। जैसे उपरोक्त प्रकाश से मेरा खोया हुआ सम्मान और बीता हुआ यौवन वृद्धावस्था में पुनः लौट आया है ! ॐ शांति ॐ