"ओखली में सिर दिया, तो मूसलों से क्या डर" लोकोक्ति भी मुझे निरंतर प्रोत्साहित कर रही है। जो मेरा साक्षात मार्गदर्शन भी कर रही है कि जब मैंने देश सेवा करने के लिए ठान ही लिया हुआ है। तो ऐसे में मुझे बार-बार जेल जाने का डर कैसा? जबकि मैं भलीभांति परिचित हूॅं कि अपने मौलिक अधिकारों को प्राप्त करने से पहले मौलिक कर्तव्यों का पालन करना पड़ता है। जिसके आधार पर सर्वप्रथम मैंने भारतीय जनता पार्टी के झंडे तले जिला जेल जम्मू में तीन दिवसीय जेल काटी। उसके उपरांत पुनः स्वर्गीय ठाकुर रामनाथ मन्हास जी के नेतृत्व में हीरानगर जिला जेल में एक दिवसीय (मात्र एक रात) जेल काटी। जहां जेल द्वारा उपलब्ध कराई गई गंदी रजाई को फाड़कर जेलर के कंधे पर एक ओर पंडित रामस्वरूप शर्मा और दूसरी ओर मैने हाथ रखकर नारेबाजी की थी। यही नहीं एक बार स्वर्गीय प्रोफेसर भीम सिंह जी के नेतृत्व में रेलवे स्टेशन जम्मू की ओर पुलिस थाने में कुछ घंटे मेहमान बने थे।
सर्वविदित है कि अपने मौलिक अधिकारों हेतु मैंने अपने मौलिक कर्तव्यों का पालन करते हुए अपने विभाग सशस्त्र सीमा बल (एसएसबी) के सेवाकाल में गुजरात जिला जेल में सम्भवतः एक माह जेल काटी थी। जहां मुझे जेल प्रशासन से तपेदिक रोगी घोषित होने के आधार पर एक किलो दूध प्रति दिन उपलब्ध होता था। जबकि विभागीय अधिकारियों ने विभागीय लंगर में मुझे खाना खाने से मना कर रखा था। जिसके विरोध में मैंने अपनी पैनी कलम द्वारा माननीय महामहिम राष्ट्रपति जी एवं अन्यों को पत्र लिखकर शंखनाद किया था। जिसके फलस्वरूप मैंने जेल काटी थी।
ऐसे में माननीय प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी जी द्वारा एक जुलाई 2015 को आरंभ किए "पारदर्शी भारत अभियान" अर्थात डिजिटल इंडिया मिशन जन जन तक पहुंचाने के लिए भी यदि जेल जाना पड़ेगा है। तो मैं इसे भी अपना सौभाग्य ही समझूंगा। चूंकि जम्मू और कश्मीर केंद्र शासित प्रदेश की सरकार के अधीन "जम्मू कश्मीर कला संस्कृति एवं भाषा अकादमी जम्मू की डोगरी/हिंदी दोमासक पत्रिका के मुख्य सम्पादक आदरणीय डॉ रत्न बसोत्रा जी उन्हीं के कार्यकाल में खुल्लमखुल्ला उल्लंघन करते हुए भ्रष्टाचारलिप्त अपमान कर रहे हैं। जिसे सहन नहीं किया जा सकता। जिसके लिए मैं जम्मू कश्मीर के भाजपा अध्यक्ष आदरणीय संत श्री रवींद्र रैना जी से भी शीघ्र ही भेंट करूंगा। ताकि जम्मू कश्मीर कला संस्कृति एवं भाषा अकादमी जम्मू में आदरणीय डॉ रत्न बसोत्रा जी की मनमानी पर अंकुश लगाया जा सके।
वैसे उक्त संघर्ष में एक बात खुलकर सामने आई है कि कलियुग में वास्तव में स्वार्थियों की संख्या अधिक है। संभवतः अब तक यह सच्चाई आदरणीय डॉ रत्न बसोत्रा जी को भी समझ आ चुकी होगी। क्योंकि उन्हें इस बात पर अत्यन्त घमंड था कि उनके चाटुकार लेखक हमेशा उनके साथ खड़े रहेंगे। वह प्रत्येक क्षेत्र में कठिन से कठिन परिस्थितियों में भी उन्हें अकेला नहीं छोड़ेंगे। जबकि सत्य यह है कि वर्तमान समय में आदरणीय "डॉ रत्न बसोत्रा" जी नितांत अकेले खड़े हैं। चूंकि कहते हैं कि गंगा का रास्ता हर कोई बता देता है परन्तु साथ कोई नहीं जाता। इसी प्रकार आदरणीय डॉ रत्न बसोत्रा जी को उनके चाटुकार लेखक मित्रों ने माननीय न्यायालय का रास्ता तो बता दिया था। परन्तु उनके साथ माननीय न्यायालय में कोई नहीं जा रहा। जहां वो और मैं आमनेसामने होंगे।
इस संबंध में मेरा निरंतर लेखन प्रयास और विभिन्न लेखकों से मिली टेलिफोनिकल जानकारियां भी अत्यधिक ज्ञानवर्धक प्रमाणित हो रही हैं। जिससे स्पष्ट हो रहा है कि आदरणीय डॉ रत्न बसोत्रा जी ने मुझे डराने हेतु तथाकथित मानहानि की धमकी देकर "आ बैल मुझे मार" वाले मुहावरे को चरितार्थ किया है। अर्थात उन्होंने दूसरे के बहकावे में आकर विपत्तियों को निमंत्रण दिया है।
जिसका निष्कर्ष यह निकलता है कि स्वातंत्र्योत्तर जम्मू कश्मीर के हिंदी साहित्य में स्वार्थ का नंगा नाच हो रहा है। जहां स्वार्थपूर्ति हेतु राष्ट्रहित को बलि की भेंट चढ़ाया जा रहा है। जम्मू कश्मीर कला संस्कृति एवं भाषा अकादमी जम्मू द्वारा आयोजित संगोष्ठियों में राष्ट्रीय हितों को त्यागकर अपने हितों को प्राथमिकता दी जा रही है। जहां गुटबाजी से सत्य का गला घोंटा जा रहा है और राष्ट्रहित में बोलने वालों को दुत्कारा जा रहा है। जिसकी सच्चाई यहां तक उजागर हो रही है कि संगोष्ठियों में मंचासीन उन्हीं विद्वानों को किया जाता है। जो राष्ट्रहित में भले ही बात ना करें या आदरणीय सचिव श्री भरथ सिंह मन्हास जी के सत्य पर आधारित सद्गुणों को भी प्रकट "करें या न करें"। परन्तु हर हाल में आदरणीय डॉ रत्न बसोत्रा जी की स्तुति अवश्य करें। अन्यथा दूसरी बार मंचासीन नहीं किया जाएगा।
अंततः मैंने सुन रखा था कि "कुत्ते का कुत्ता बैरी" होता है। परन्तु दुर्भाग्यवश जम्मू कश्मीर कला संस्कृति एवं भाषा अकादमी जम्मू के मुख्य संपादक आदरणीय डॉ रत्न बसोत्रा जी तो "लेखक को लेखक का बैरी" बना रहे हैं। जहां लेखकों को स्वार्थी बनने पर विवश किया जा रहा है। मात्र एक समोसा और 1350 रुपए के लिए गिड़गिड़ाना सिखाया जा रहा है। और तो और पारदर्शी भारत अभियान के पक्ष में बोलने पर क्षमायाचना करने के लिए माननीय न्यायालय से जेल भिजवाने की धमकी दी जा रही है। जिसपर स्वातंत्र्योत्तर जम्मू कश्मीर हिन्दी साहित्य के समस्त विद्वान लेखक चुप्पी साधे हुए हैं। जबकि विद्वान लेखकों को युगों-युगों से सामाजिक दर्पण कहा जाता रहा है। हालांकि दर्पण की विशेषता होती है कि वह टूट तो सकता है परन्तु झूठ नहीं बोल सकता। ॐ शांति ॐ