प्रातः काल की सैर में असंख्य शीतल मोतियों को पैरों तले कुचलकर मन मस्तिष्क प्रसन्न हुआ है। जिस अनमोल कृत्य से अनुभव हो रहा था कि मैं भ्रष्टाचार और भ्रष्ट व्यवस्था के कर्णधारों को कुचल रहा हूॅं। उनके भ्रष्टाचार की आधारशिला पर टिके "व्यक्तित्व" को मिट्टी में मिला रहा हूॅं। उनकी चुप्पी तोड़ने का अथक प्रयास कर रहा हूॅं। जो गूंगे न होते हुए गूंगेपन का अभिनय कर रहे हैं। जो बहरे न होते हुए बहरों का ढोंग कर रहे हैं। जो अन्धे न होते हुए अंधेपन का प्रदर्शन कर रहे हैं। जो निस्संदेह झूठ पर आधारित हैं और सत्य यह है कि झूठ का सदैव मूंह काला ही होता है।
मेरे उपरोक्त विचारों की तंद्रा उस समय भंग हुई। जब गली से आवाज़ आई "करेला ले लो, भिंडी ले लो, सस्ते में मनभावन सब्जी ले लो"। मेरा ध्यान पुनः फेसबुक पर आए असंख्य पुरस्कार देने वाली निजी साहित्यिक संस्थाओं की ओर चला गया। जो उक्त सब्जी वाले की भांति चीख चीखकर कह रहे हैं कि "पुरस्कार ले लो पुरस्कार, सस्ते में मनभावन पुरस्कार ले लो"। इसी प्रकार बहुत से निजी विश्वविद्यालय "डिग्री ले लो डिग्री, पिएचडी की डिग्री ले लो, सस्ते में अपने नाम के आगे डॉक्टर लगाने हेतु डिग्री ले लो" की रट लगाए जा रहे हैं।
ऐसे में उच्च कोटि का लेखक होने के बावजूद मुझे निजी और सरकारी साहित्यिक संस्थाओं द्वारा दुत्कारा जाना इसके अलावा विश्वविद्यालयों के कार्यरत और सेवानिवृत्त प्रोफेसरों द्वारा मौनव्रत धारण कर लेना। उनका मात्र 1350 रूपए पारितोषिक और एक समोसे के प्रति लालायित होना। साहित्यिक संस्थाओं और साहित्यकारों द्वारा बड़ी पदवी या डोगरी के कन्वीनर को सम्मानित करना और हिंदी परामर्श बोर्ड में सदस्य तक के न होने के प्रश्नों पर शव बन जाना। साहित्य अकादमी पुरस्कार और पद्मश्री पुरस्कार प्राप्तकर्ता विख्यात लेखकों की लेखनी का टिप्पणी नहीं करना "गड़बड़ घोटालों" की ओर अवश्य ध्यानाकर्षित करता है।
इसके अतिरिक्त राज्य अथवा केंद्र शासित प्रदेशों द्वारा आयोजित राष्ट्रीय स्तर के कवि सम्मेलनों में आमंत्रित कवियों को देय मानदेयों में बड़ा अंतर होना भी विडंबना है। चूंकि आमन्त्रित स्थानीय कवियों को दस हज़ार रुपए देना और बाहरी राज्यों से आमंत्रित कवियों को एक लाख रुपए दे देना भी अत्यंत रोचक एवं रहस्य है। जिसपर प्रश्न उठना स्वाभाविक है। उसपर विडंबना की सीमा पार उस समय हो जाती है जब उक्त कार्यक्रम का ब्यौरा "पारदर्शी भारत अभियान" से गुप्त रखा जाता है। उस राष्ट्रीय कवि सम्मेलन में आमंत्रित कवियों का मापदंड क्या था? उन्हें किन किन कसौटियों पर परखा गया था? उनके प्रदर्शन के मूल्यांकन का आधार क्या था? किस किसने उनके ज्ञान की समीक्षा और विश्लेषण किया था और उनके विफल प्रदर्शन का जिम्मेदार कौन था?
उपरोक्त प्रश्न स्वाभाविक ही नहीं बल्कि राष्ट्रहित में परम आवश्यक हैं। ताकि राष्ट्र स्तर पर राष्ट्रीय कवि सम्मेलनों में केंद्र शासित प्रदेश जम्मू और कश्मीर की हंसी न उड़ाई जा सके। कहीं यह संदेश न जाए कि जम्मू और कश्मीर वासियों को हिंदी का ज्ञान ही नहीं है। अर्थात जम्मू में कोई राष्ट्र स्तर का कवि, लेखक और सकारात्मक सृजनकर्ता नहीं है। जिसपर उपरोक्त प्रश्नों की जानकारी लेना जन जन का अधिकार है। परन्तु दुर्भाग्यवश कुछ सरकारी अधिकारी इसे मानहानि मानते हुए प्रश्नकर्ता पर मानहानि के नोटिस का रौब झाड़ते हैं। हालांकि सरकारी आयोजकों से राष्ट्रहित में उपरोक्त प्रश्न पूछना किसी भी दृष्टिकोण से "मानहानि" की संज्ञा की श्रेणी में नहीं आते। क्योंकि राष्ट्रीय सम्पत्ति कोई सब्जीमंडी नहीं है कि उसमें मनमर्जी की जा सके।
इन्हीं चिंताओं के मंथन पर अंकुश मेरे दूरभाष पर बजी घंटी ने लगाया था। मैंने हरिओम कहते हुए दूरभाष पर संपर्क साधा था। जिसमें दूसरी ओर से औपचारिकता पूरी करते हुए मुझे परामर्श दिया गया था कि अन्य विख्यात लेखकों को आकर्षित करने हेतु वर्ष में एक बार आप एक कवि सम्मेलन या संगोष्ठी का आयोजन कर लिया करो। जिससे आपका भविष्य उज्ज्वल हो जाएगा और आपको निजी एवं सरकारी आयोजकों द्वारा दुत्कारा भी नहीं जाएगा। मैंने बिना औपचारिकता पूरी किए उन्हें संक्षिप्त सा उत्तर देते हुए कहा था कि मान्यवर "मैंने समाचार पत्र बेचकर चवन्नियां-अठन्नियां" एकत्रित की थीं। जिनसे अपना और अपने परिवार का पेट भरा हुआ है। उच्च शिक्षा के लिए मात्र हाथ बंटवाया था। जिसके कारण मैं धन का महत्व समझता हूॅं और उस धन को व्यर्थ खर्च नहीं करना चाहता। इसके अलावा मैंने "सम्मानों को अपमानों" में परिवर्तित होते अपनी खुली ऑंखों से देखा है। इसके अतिरिक्त तथाकथित प्रख्यात लेखकों के घरों में भारत सरकार की प्रमुख जॉंच एजेंसी "केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो" (सीबीआई) द्वारा मारे गए छापों का ब्यौरा भी भलीभांति समाचारपत्रों की सुर्खियां को पढ़ चुका हूॅं। जिसका परिणाम भविष्य की गर्भ में छिपा है।
अतः चूंकि मैं भी अपने कतिपय विभागीय भ्रष्ट अधिकारियों द्वारा लगाए गए आधारहीन "राष्ट्रद्रोह" के झूठे आरोप का स्वाद चख चुका हूॅं। इसलिए मैं किसी पर भी किसी प्रकार की कोई टीका-टिप्पणी नहीं करना चाहता और ना ही मैं पुरस्कार बेचने और खरीदने का धंधा करना चाहता हूॅं। इसलिए उक्त धंधे की उन्हीं को बधाई है जिन्हें सम्मानित होने की होड़ लगी रहती है। परन्तु सौभाग्यवश मैं भलीभांति जानता हूॅं कि वर्तमान समय में मेरी लेखन संबंधित उपलब्धियों से उपजी इर्ष्या के कारण भले ही मुझे भ्रष्टों द्वारा मंचों पर दुत्कारा जा रहा है। परन्तु आने वाला समय मेरा है। जिसके लिए मैं अभी कवि सम्मेलन या संगोष्ठी आयोजित नहीं करूंगा। क्योंकि मैंने राष्ट्रीय सम्मानों से सम्मानित तथाकथित "व्यक्तित्वों" को घोर अपमानित होते देखा है। जिनपर उक्त लोकोक्ति पूरी तरह चरितार्थ होती है कि "शीशे के घरों में रहने वाले लोग दूसरों के घरों में पत्थर नहीं फेंक सकते" अर्थात "जो इलास्टिक का पैंट पहनते हैं, वह दूसरे का पैंट नहीं खींच सकते" हैं। सम्माननीयों ॐ शांति ॐ