काल्पनिक साहित्य उस कायर कबूतर की भांति है जो बिल्ली को देखते ही अपनी ऑंखें बन्द कर लेता है और बिल्ली उसे आसानी से खा जाती है। इसी सिक्के के दूसरे पहलू का कड़वा सच यह है कि यथार्थ साहित्य को साहित्य ही नहीं माना जाता। वर्णनीय है कि जम्मू और कश्मीर कला संस्कृति एवं भाषा अकादमी जम्मू इस कड़वे सच को प्रमाणित कर चुकी है। चूंकि मेरे अनमोल जीवन रूपी शोध में मैंने अंग्रेजी भाषा में यथार्थ पर आधारित एक पुस्तक लिखी है। जिसका नाम "वेयर इज़ कॉन्स्टिट्यूशन लॉ एंड जस्टिस" है। जिसे यह कहकर अकादमी ने लौटा दिया था कि उक्त पुस्तक साहित्यिक नहीं है। जिसके उपरांत मैंने अपनी कोई पुस्तक अकादमी को नहीं दी थी। हालांकि अकादमी के वर्तमान सचिव आदरणीय श्री भरथ सिंह मन्हास जी सत्य के प्रतीक हैं और यथार्थ को प्राथमिकता देने वाले शूरवीरों में से एक हैं। जिनकी निष्पक्ष निष्ठा को हार्दिक नमन करना परामार्थ की श्रेणी में आता है। परन्तु प्रश्न तो उठेंगे ही। चूंकि जब आग लगेगी तो धुएं का उठना स्वाभाविक है। जिन स्वाभाविक साहित्यिक प्रश्नों में से एक ज्वलंत प्रश्न यह उठता है कि यथार्थ को दर्शाता साहित्य "साहित्य" क्यों नहीं माना जाता है? जबकि साहित्यकार मुंशी प्रेमचंद और भारतेंदु हरिश्चंद्र जी" को भारतीय साहित्य सादर यथार्थवादी साहित्यकार मानता है। तथापि इसके बावजूद समसामयिक साहित्यकार यथार्थ से कायरों की भांति मुंह क्यों फेर लेते हैं? वह यथार्थ को देखते ही पतली गली से होकर क्यों निकलना श्रेष्ठकर मानते हैं? क्यों ऐसे कायर साहित्यकारों की पतलून सच का सामना होते ही सार्वजनिक रूप में गीली हो जाती है? पारदर्शी भारत में उपरोक्त समस्त प्रश्नों के उत्तर तो सशक्त राष्ट्र के जागरूक भारतवासियों को मिलने ही चाहिए और देखना यह भी है कि कब तक तथाकथित विद्वान साहित्यकार पतलून गीली करते हुए पतली गली का सहारा लेते रहेंगे ?
विडंबना यह है कि साहित्यकारों को समाज का आईना माना जाता है और मान्यता यह भी है कि आईना कभी झूठ नहीं बोलता है। परन्तु प्रश्न यह है कि सत्य का निडरतापूर्वक सामना करने वाले समसामयिक साहित्यकारों की संख्या कितनी है जो समाज का सम्मानपूर्वक मार्गदर्शन कर आईने का मान रख रहे हैं? जबकि प्रश्न तो यह भी ज्वलंत है कि कितने साहित्यकारों का स्वयं का दाम्पत्य जीवन सुखमय है? कितने साहित्यकारों का निजी जीवन साकारात्मक एवं सुखी है? कितने साहित्यकार अपने विवाद की याचिका स्वयं लिखने में निपुण हैं? कितने साहित्यकार हैं जो संवेदनशील हैं और दूसरों की संवेदनाओं को उजागर करने में सफल रहे हैं? कितने साहित्यकारों के विवाह विच्छेद हो चुके हैं और कितनों के विवाहिक मामले माननीय न्यायालयों में विचाराधीन हैं? उनके घरों में उन्हें कितना सम्मान मिलता है? कितने साहित्यकार दूसरों को प्रभावित कर या लालच देकर सार्वजनिक रूप से स्वयं को सम्मानित करवाते हैं और सम्मान की मृगतृष्णा को शांत करने का असफल प्रयास करते हैं? कितने साहित्यकारों को उनके मुहल्ले, गांव, शहर एवं कुटुम्ब में मार्गदर्शक माना जाता है?
प्रश्न यह भी स्वाभाविक है कि निजी जीवन को सुखमय बनाने में साहित्य एवं साहित्यकार दिव्यांग क्यों हैं? हम अपने बिगड़े पारिवारिक जीवन में पनपी मतिभ्रमों को दूर करने हेतु साहित्य का सहारा क्यों नहीं ले सकते और यदि कोई जागरूक साहित्यकार लेने का प्रयास करे तो उसे मनोरोगी की संज्ञा क्यों दे दी जाती है? जबकि प्रश्न यह भी है कि किस घर में पारिवारिक मतभेद नहीं होते और पति-पत्नी रूपी बर्तन किस घर में नहीं टकराते? तो ऐसे में यदि साहित्यकार पति-पत्नी में भी नोंक झोंक हो जाए तो क्या साहित्यकार कभी अपना सुधार नहीं करना चाहेंगे? क्या वे भविष्य के साहित्य लेखन को नया मोड़ नहीं देना चाहते?
कब तक नारी साहित्यकार अपने पति को या नर साहित्यकार अपनी पत्नी को दोषी ठहराते रहेंगे? कब हम साहित्यकार अपने बिछड़े परिवार को जोड़ने वाली चुनौती को स्वीकार करने में सक्षम होंगे? क्योंकि साहित्यकारों को भी अपने मौलिक कर्तव्यों का निष्ठापूर्वक निर्वहन करना चाहिए और पति द्वारा पत्नी के प्रति एवं पत्नी द्वारा पति के प्रति मौलिक कर्तव्य बनता है कि वह अपने पारिवारिक मतभेदों को भुलाकर गले लगें। अन्यथा साहित्यकारों के लिए उपरोक्त अभाव शोभनीय नहीं हैं? चूंकि असफल व्यक्तित्व के साहित्यकारों को समाज का सम्मानपूर्वक मार्गदर्शक एवं आईना कभी नहीं माना जा सकता। जिसका कड़वा सच यह है कि जो साहित्यकार अपनी समस्याओं को सुलझाने में पूर्णतः असफल रहे हों वह दूसरों की समस्यायों को क्या राख सुलझाएंगे?
अतः अंततः समसामयिक साहित्यकारों को कल्पना रूपी कबूतरों की कुप्रथा को त्यागकर एक न एक दिन यथार्थ से परिपूर्ण उपरोक्त प्रश्नों के उत्तर देने ही पड़ेंगे कि साहित्यकारों द्वारा घुट घुटकर जीवनयापन करना ही क्या उनकी बुद्धि, विवेक और विद्वता मानी जाएगी, क्यों मानी जाएगी और कब तक मानी जाएगी ? सम्माननीयों जय हिन्द
प्रार्थी
इंदु भूषण बाली
व्यक्तिगत रूप से याचिकाकर्ता (पिटीशनर इन पर्सन)।
वरिष्ठ लेखक व पत्रकार, राष्ट्रीय चिंतक, स्वयंसेवक, भ्रष्टाचार के विरुद्ध विश्व की लम्बी ग़ज़ल, राष्ट्रभक्ति एवं मौलिक कर्तव्यों के नारों में विश्व कीर्तिमान स्थापितकर्ता
एवं
भारत के राष्ट्रपति पद का पूर्व प्रत्याशी,
वार्ड अंक 01, डाकघर व तहसील ज्यौड़ियां, जिला जम्मू, केंद्र शासित प्रदेश जम्मू और कश्मीर, पिनकोड 181202।