यूं तो प्रत्येक तिथि और दिन शुभ होता है। परन्तु दिनांक इकतीस जुलाई दो हजार तेईस दिन सोमवार मेरे लिए अत्यधिक शुभ प्रमाणित हुआ था। चूंकि उस दिन मुझे सर्वप्रथम माननीय जम्मू और कश्मीर और लद्दाख उच्च न्यायालय जम्मू से इच्छापूर्ति हुई थी। जिससे प्रसन्न होकर मैंने जम्मू और कश्मीर कला संस्कृति एवं भाषा अकादमी जम्मू का रूख किया था। जहां पर मुझे आदरणीय सचिव श्री भरथ सिंह मन्हास जी से अपने विरोधियों को क्षमा करने का अनमोल उपदेश प्राप्त हुआ था। कहने का स्पष्ट अभिप्राय यह है कि उपरोक्त दिनांक और दिवस ने मेरी नकारात्मकता को निगलकर मेरे उज्जवल भविष्य को सकारात्मकता से परिपूर्ण कर दिया था। जिसके लिए मैं ईश्वर को कोटि कोटि नमन करता हूॅं।
हुआ यूं कि जब मैंने अकादमी में प्रवेश किया तो सर्वप्रथम सांस्कृतिक अधिकारी आदरणीय डॉ. शाह नवाज़ जी के कार्यालय में पहुंचा था। जिन्होंने मेरा हार्दिक अभिवादन करते हुए सम्मान सहित मुझे कुर्सी पर बैठने का अनुरोध किया था। उस समय मन ही मन मैं ईश्वर का स्मरण कर रहा था। क्योंकि मेरा अद्भुत ही नहीं बल्कि अद्वितीय सत्कार किया जा रहा था। जिससे मेरी आत्मा तृप्त हो रही थी और संतुष्टि की असीम प्रसन्नता को प्राप्त कर रहा था। मुझे अनुमान ही नहीं हो रहा था कि यह वही अकादमी है जहां वर्षों से मेरा अपमान हो रहा था। सत्य तो यह है कि मैं अपनी अनुभूति वर्णन करने में अक्षम हो रहा हूॅं।
कुछ ही क्षणों के उपरांत मैंने उनसे अकादमी के प्रशासनिक अधिकारी अर्थात सचिव आदरणीय श्री भरथ सिंह मन्हास जी से मिलने की इच्छा प्रकट की थी। जिसका स्वागत करते हुए उन्होंने मुझे बताया था कि वह भी किसी महत्वपूर्ण बैठक में भाग लेने जा रहे हैं। इसलिए उनसे अनुमति लेकर मैं सचिव जी के कार्यालय की ओर बढ़ने से पहले उस ओर बढ़ा जहां उपस्थित मेहमान खाना खा रहे थे। जहां से मैंने पानी की एक बोतल प्राप्त की और अपनी प्यास बुझाने के उपरांत अपने गंतव्य की ओर बढ़ गया। कुछ ही समय में मैं उनके कार्यालय के दरवाजे पर खड़ा था। जहां एक महिला कर्मचारी ने मुझे पूछा कि किससे मिलना है? मेरे बताने पर उन्होंने सचिव महोदय जी से अनुमति लेकर मुझे कमरे में भेज दिया था।
मेरे प्रवेश करते ही आदरणीय सचिव श्री भरथ सिंह मन्हास जी ने मुस्कुराते हुए मुझे सोफे पर विराजमान होने का सादर संकेत किया था। जिसपर मैं सम्पूर्ण विश्वास सहित विराजित हो गया था। उन्होंने अपने कार्य को विराम देते हुए मुझे मुस्कुरा कर सादर पूछा कि कैसे आना हुआ? मैंने बताया कि कई दिनों से आपका दर्शनाभिलाषी था। इसलिए दर्शन करने चला आया। जिसका उन्होंने हंसकर स्वागत किया था और मैंने भी उनकी हंसी से अपने आपको संतुलित किया था। चूंकि "अकादमी संबंधित" मेरे आलेखों ने विशेषकर "जंगल में मोर नाचा किसने देखा" ने अकादमी में अत्यधिक उथल-पुथल मचाई हुई थी। जिसके उपरांत उनके साथ अकेले में बैठने का यह मेरा पहला सुअवसर था। हालांकि इससे पहले अकादमी द्वारा आयोजित कार्यक्रम में आमंत्रित होने पर हम दोनों के. एल. सहगल सभागार में सार्वजनिक रूप से मिल चुके थे। परन्तु वहां खुलकर चर्चा करना असम्भव था। इसलिए मानसिक रूप से मैं गंभीर ही नहीं बल्कि असंतुलित भी था। चूंकि हमारे बीच नोंक झोंक होने का प्रयाप्त आधार था।
मैं उस समय दंग रह गया जब आदरणीय सचिव श्री भरथ सिंह मन्हास जी ने अपनी प्रशासनिक कुशलता का अद्भुत परिचय देते हुए स्पष्ट रूप से कहा कि "मैं सरकार द्वारा दी गई कुर्सी पर बैठकर किसी भी लेखक, साहित्यकार और कलाकार से अन्याय" नहीं करता हूॅं और ना ही अपने अधीनस्थ अधिकारी या कर्मचारी को करने देता हूॅं। उन्होंने अपनी मधुर वाणी को विस्तार देते हुए पुनः कहा कि "मैं सरकारी कुर्सी पर बैठने के उपरांत सदैव अपने निजी मतभेदों को भूल जाता हूॅं। चूंकि यह अकादमी मेरी निजी संपत्ति नहीं है और मेरे से पहले इस कुर्सी पर कई दूसरे बैठ चुके हैं। उन्होंने अपने संबोधन में आगे कहा कि "यह भी सत्य है कि मेरे बाद भी कई अन्य अधिकारी इस कुर्सी की शोभा बढ़ाएंगे"। चूंकि मैं एक व्यावहारिक अधिकारी हूॅं और व्यवहारिक आचरण से कर्म पर विश्वास करता हूॅं। उन्होंने अपने पूर्ण आत्मविश्वास से मुझे पूछा कि क्या आपको अकादमी के कार्यों में परिवर्तन नहीं दिखाई दे रहा है? क्या अकादमी बुनियादी स्तर पर समसामयिक मानदंडों पर कार्य कर खरी नहीं उतर रही? उन्होंने कुछ रुककर अत्यंत गंभीर मुद्रा में कहा कि "मैं तो सरकार द्वारा दी गई कुर्सी के प्रति निष्ठावान ही नहीं बल्कि मौलिक कर्तव्यनिष्ठ भी हूॅं और न्याय का पक्षधर था हूॅं और सदैव रहूंगा। मुझे प्रतीत हो रहा था कि मेरे द्वारा अपने आलेखों के माध्यम से पूछे गए प्रश्नों का अप्रत्यक्ष रूप से स्पष्ट उत्तर दिया जा रहा है। मुझे भलीभांति समझ आ चुकी थी कि अकादमी द्वारा आयोजित स्वर्गीय पंडित विद्या रत्न आसी जी के कार्यक्रम में उपस्थित विद्वान लेखकों का मेरे नाम सहित अन्यों के नाम सादर बोलकर मंच से स्वागत करने के पीछे का रहस्य क्या था?
उल्लेखनीय है कि मैं उनसे उनकी स्पष्टवादिता एवं मधुर वाणी से इस प्रकार प्रभावित हुआ कि मैं स्तब्ध होकर उनको देखता ही रहा था। वह कहते रहे कि "आपके ज्ञान को आपके विरोधी समझ ही नहीं पा रहे हैं। ऐसे जैसे न्यूटन और सुकरात जैसे व्यक्तित्व को दुनिया वाले समझ ही नहीं सके थे। उसी प्रकार आपकी विद्वता को आपके प्रतिस्पर्धी समझने में असफल हैं। इसलिए आपको अपने लेखन में व्यस्त रहना चाहिए और अपने विरोधियों को क्षमा कर देना चाहिए। उन्होंने बहुत ही धीमी ध्वनि से कहा कि "मैं आप सहित अन्य लेखकों का सम्मान इस आधार पर भी करता हूॅं कि वह समाज एवं राष्ट्र को समर्पित हर पल कुछ न कुछ दे ही रहे हैं। उन्होंने पंडित विद्या रत्न आसी जी को महान व्यक्तित्व मानते हुए कहा कि संभवतः वह उनके साथ उनके जीवनकाल में कुछ पल व्यतीत करते और उनके लिए कुछ कर पाते?
वर्णनीय है कि अकादमी के कुशल नेतृत्व के धनी प्रशासनिक अधिकारी आदरणीय सचिव श्री भरथ सिंह मन्हास जी की आंखों में स्वर्गीय पंडित विद्या रत्न आसी जी के प्रति मौन श्रद्धांजलि स्पष्ट दिखाई दे रही थी। जिससे स्पष्ट प्रतीत हो रहा था कि वह अपने दायित्व के निर्वहन हेतु कितने संवेदनशील हैं। उन्होंने यह भी कहने में संकोच नहीं किया कि "आशा पर दुनिया टिकी" है और मेरी ओर संकेत करते हुए कहा कि आशावादी बने रहें "सबकुछ" अच्छा ही होगा। उनके साथ अकादमी के सांस्कृतिक अधिकारी श्री सुधीर महाजन जी भी कार्यालय में विराजमान थे।
अंततः क्षमा प्रार्थी होते हुए उनके ज्ञान के सागर को गागर में भरकर आदरणीय सचिव श्री भरथ सिंह मन्हास जी से हाथ मिलाकर और आदरणीय श्री सुधीर महाजन जी के साथ गले मिलकर मैंने उनसे विदा ली और मन ही मन उन्हें ढेरों शुभकामनाएं देते हुए कार्यालय से बाहर आ गया। मुझे विश्वास ही नहीं हो पा रहा था कि यह वही अकादमी है। जहां वर्षों से मेरे चाहने वाले साजिशों के अंतर्गत मेरी विद्वता के साथ-साथ मेरा भी अपमान कर रहे थे और दुर्भावनावश मुझे नकारात्मक लेखक दर्शाकर मुझे घृणा का पात्र बनाए हुए थे। जबकि वह मेरी तेजधार लेखनी का लोहा मानते थे और मुझसे ईर्ष्या करते थे। हालांकि मेरे परम शिष्य इसी अकादमी में कार्यरत हैं। जहां सौभाग्यवश मेरा कोई शत्रु नहीं है। चारों ओर मेरे मित्र ही मित्र हैं। यही सोचते सोचते मेरे पांव हिंदी की उप संपादक आदरणीय/पूजनीय श्रीमती रीटा खडयाल जी के कार्यालय की ओर बढ़ने लगे थे। उन गतिमान पांवों को लगाम उस समय लगी जब मैंने देखा कि वह खाना खा रही हैं। मैंने मन ही मन देवी स्वरूप के चरणों में नमन किया और उनसे क्षमा मांगकर अपने घर की ओर जाने वाले वाहनों में सवार होने के लिए आगे की ओर बढ़ने लगा था। जय हिन्द। सम्माननीयों ॐ शांति ॐ
प्रार्थी
इंदु भूषण बाली
व्यक्तिगत रूप से याचिकाकर्ता (पिटीशनर इन पर्सन)
वरिष्ठ लेखक व पत्रकार, राष्ट्रीय चिंतक, स्वयंसेवक, भ्रष्टाचार के विरुद्ध विश्व की लम्बी ग़ज़ल, राष्ट्रभक्ति एवं मौलिक कर्तव्यों के नारों में विश्व कीर्तिमान स्थापितकर्ता
एवं
भारत के राष्ट्रपति पद का पूर्व प्रत्याशी,
वार्ड अंक 01, डाकघर व तहसील ज्यौड़ियां, जिला जम्मू, केंद्र शासित प्रदेश जम्मू और कश्मीर, पिनकोड 181202।