पंजाबी गीत "भट्ठी वालिए दुक्खां दा परागा भुन्न दे" सुनाई दे रहा था। जिसमें वास्तव में वास्तविक पीड़ाएं थीं। जो गायक निजी और सांसारिक पीड़ाओं को उस भट्ठी वाली के माध्यम से व्यक्त कर रहा था। जिस भट्ठी वाली का उन पीड़ाओं से कोई सम्बन्ध नहीं है। अर्थात उक्त भट्ठी वाली ने उक्त पीड़ाएं न दी थीं और ना ही वह दी गई पीड़ाओं का समाधान कर सकती थी। फिर भी गुमनाम भट्ठी वाली अमर हो चुकी है। जिसका प्रमाण उक्त गीत है।
परन्तु आदरणीय डॉ रत्न बसोत्रा जी मेरी पीड़ाएं तो आपसे सम्बंधित थीं हैं और रहेंगी। मेरा तो आपके साथ दशकों से नाता है और यह नाता उस समय और भी गहरा हो जाता है। जब आपकी बग़ल में मेरे परम आदरणीय महाविद्वान "शिष्य" साहित्य अकादमी पुरस्कार प्राप्तकर्ता श्री यशपाल निर्मल जी बैठे हों। जहां आप मेरे से पूछें कि क्या आप भी लिखते हैं? आदरणीय डॉ रत्न बसोत्रा जी तब प्रश्न उठने और भी स्वाभाविक हो जाते हैं। इसके अलावा स्पष्टीकरण इन प्रश्न पर भी आमंत्रित हैं कि गत वर्षों में अकादमी द्वारा आयोजित हिंदी कवि सम्मेलन में आपके द्वारा आमंत्रित करने के बावजूद मुझे आदरणीय यशपाल निर्मल जी सूचित करना भूल जाते हैं और मैं न केवल कार्यक्रम से वंचित हो जाता हूॅं बल्कि आर्थिक तंगी के समय में अकादमी द्वारा देय मानदेय से भी हाथ धो बैठता हूॅं। जबकि आदरणीय श्री यशपाल निर्मल जी पूरी तरह अवगत थे कि उक्त कार्यक्रम और कार्यक्रम में मिलने वाला मानदेय मेरे लिए कितना महत्वपूर्ण था।
परन्तु आदरणीय डॉ रत्न बसोत्रा जी आप दोनों को क्या अंतर पड़ा था चूंकि "अपना काम बनता, भाढ़ में जाए जनता" वाली कहावत को चरितार्थ करते हुए आप दोनों को कोई भी हानि नहीं पहुंची थी। जबकि मेरी आर्थिक एवं मानसिक हानियों से आप दोनों (सर्वश्री आदरणीय यशपाल निर्मल जी और परम आदरणीय महाविद्वान डॉ रत्न बसोत्रा जी) का कोई लेना/देना नहीं था। जिससे स्पष्ट हो जाता है कि आप दोनों की मिलजुली साजिश थी और अब भी है। जिसका मैं शिकार हो रहा था। जबकि उक्त कार्य पहले लिखित में हुआ करते थे और सभी आमंत्रित महानुभावों को पत्र द्वारा सूचित किया जाता था। जिसके लिए आप दोनों कल्चरल अकादमी जम्मू और भारतीय सभ्यता और संस्कृति के भी अपराधी हैं। दूसरे शब्दों में इसे अपनी ड्यूटी में कोताही बरतना भी कहते हैं। जिसे "भ्रष्टाचार" की संज्ञा देना अतिश्योक्ति नहीं है।
ऐसे में एक अपरिचित हिंदी शिराज़ा के आदरणीय सम्पादक से साहित्यिक चर्चा करते हुए मुझे सुनने को मिलता है कि मैं एक नकारात्मक लेखक हूॅं। तब आदरणीय डॉ रत्न बसोत्रा जी प्रश्नों का उठना और भी स्वाभाविक हो जाता है कि उक्त हिंदी शिराज़ा के सम्पादक के साथ वाली कुर्सी पर वर्षों से विराजमान मेरे "शिष्य" साहित्य अकादमी पुरस्कार प्राप्तकर्ता श्री यशपाल निर्मल जी की क्या भूमिका रही होगी? जबकि मैंने उनके साथ समाचारपत्र बेचे हैं और वह मेरे शोषण और लेखन से भलीभांति परिचित भी थे। ऐसे में मेरे विरुद्ध दुष्प्रचार करने के मूल घटक कौन हैं ? आदरणीय डॉ रत्न बसोत्रा जी इसमें आपकी भूमिका भी संदिग्ध थी जिसके लिए अब खुलकर सामने आ रहे हैं। किंतु आदरणीय डॉ रत्न बसोत्रा जी ध्यान रखना जो मेरे नहीं हुए वह आपके भी कदापि नहीं होंगे। इसलिए ध्यान रहे कि आपके कार्यकाल में भी कल्चरल अकादमी द्वारा मेरे मौलिक अधिकारों का हनन हुआ था। जिसमें मुझे देय कलम, कापी और फाइल नहीं दिए गए थे और उस सबका विरोध मैंने तत्कालीन माननीय प्रधानमंत्री एवं महामहिम राष्ट्रपति जी को प्रार्थना पत्र भेज कर किया भी था। जिसपर सरकार द्वारा मांगे गए जवाबों में आपने भी स्पष्टीकरण दिए थे। संभवतः मेरे उन्हीं मौलिक कर्तव्यों पर आधारित दी गई प्रार्थनापत्रों से चिढ़कर आपने यह दुष्प्रचार किया हो कि "इंदु भूषण बाली नकारात्मक लेखक" है। यही कारण रहे होंगे कि आप सबकी मिलीभगत से मुझे कभी पुस्तक प्रकाशित करने के लिए सब्सिडी भी उपलब्ध नहीं करवाई गई थी। अन्यथा जहां शिष्य बैठे हुए हों वहां गुरु की पुस्तकों को प्रकाशित करना कोई मुश्किल नहीं होता। इसी प्रकार मुझे कभी साहित्यिक यात्रा में भी नहीं नहीं भेजा गया। प्रश्न तो बनते हैं कि आखिर क्यों?
आदरणीय डॉ रत्न बसोत्रा जी आप यह भी भलीभांति जानते हैं कि उन्हीं आदरणीय सम्पादक महोदय/महोदया जी ने मुझे इतना प्रोत्साहन दिया कि हिंदी शिराज़ा में सबसे अधिक मेरी रचनाएं प्रकाशित कर दी गईं और मुझे अकादमी द्वारा आयोजित हिंदी कवि सम्मेलनों में भी प्रमुखता से सादर आमंत्रित किया जाने लगा। जिससे आप आगबबूला हो गए और आपने अपने लम्बे अनुभव के कारण किसी प्रकार जुगाड़वश हिंदी शिराज़ा के भी सम्पादक बनकर हिंदी/डोगरी शिराज़ा के मुख्य सम्पादक बन गए। जिसके लिए आपको हार्दिक शुभकामनाएं देते हुए सादर पूछ रहा हूॅं कि आपको बार बार मेरा अपमान/शोषण करने का अधिकार कहां से और क्यों प्राप्त हो गया? जबकि अकादमी द्वारा आयोजित डोगरी कवि सम्मेलन में आप द्वारा प्रायोजित असंवैधानिक मंच सचिव द्वारा मेरा सार्वजनिक अपमान करवाया था। जिसके लिए आप अकादमी सचिव श्री भरथ सिंह मन्हास जी के समक्ष क्षमा भी मांग चुके हो। जिसकी पीड़ा से क्षुब्द होकर अकादमी द्वारा आयोजित आगामी दो दिवसीय सम्मेलन में मुझे बुक न करते हुए आपने अपने पद और शक्तियों का दुरपयोग किया। जिसे आचार संहिता में "भ्रष्टाचार" कहना भी अतिश्योक्ति नहीं है। जिसके आप संवैधानिक उत्तरदेय हैं। ऐसे ही अनेक अन्य प्रश्नों के आप संवैधानिक उत्तरदेय हैं। चूंकि कल्चरल अकादमी सरकारी संस्थान है। जहां आप भारतीय नागरिकों की सेवा हेतु नियुक्त वैतनिक सेवक हैं। जहां अनुशासनहीनता, मनमानी करना, पद और शक्तियों का दुरपयोग करना, एहम दर्शाना आपराधिक "भ्रष्टाचार" की श्रेणी में ही आता है।
ऐसी गंभीर परिस्थितियों में आदरणीय डॉ रत्न बसोत्रा जी आप माननीय प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी जी द्वारा राष्ट्र को समर्पित पारदर्शी भारत अभियान अर्थात "डिजिटल इंडिया मिशन" को न मानने का दुस्साहस केसे कर सकते हैं? आदरणीय डॉ रत्न बसोत्रा जी जब आप अकादमी के आदरणीय सचिव श्री भरथ सिंह मन्हास जी की नहीं मानेंगे, अकादमी के अध्यक्ष एवं केंद्र शासित प्रदेश जम्मू और कश्मीर के माननीय उपराज्यपाल श्री मनोज सिन्हा जी की नहीं मानेंगे, केंद्रीय संस्कृति मंत्री श्री जी. किशन रेड्डी जी की नहीं मानेंगे, संचार एवं सूचना प्रौद्योगिकी मंत्रालय के माननीय कैबिनेट मंत्री श्री अश्विनी वैष्णव जी द्वारा जारी दिशा निर्देशों को नहीं मानेंगे और तो और आप माननीय सशक्त प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी जी के दिशा निर्देशों का पालन भी नहीं करेंगे तो स्पष्ट बताइए आप मानेंगे किसे और किसकी आज्ञा का पालन करेंगे?
आदरणीय डॉ रत्न बसोत्रा जी अभी तक मुझे कल्चरल अकादमी जम्मू द्वारा यह भी नहीं बताया गया कि किसने मेरी "वेयर इज़ कॉन्स्टिट्यूशन? लॉ एंड जस्टिस" नामक पुस्तक को असाहित्यक कहते हुए वापस भेज दिया था। जबकि उसमें भारतीय माननीय न्यायपालिका से अपने संवैधानिक अनुभवों के आधार पर मैंने झेले असाधारण शोषण को दर्शाया है। जिसके आधार पर ईश्वर न करे कि आपको भी कभी न कभी माननीय न्यायालय में उपस्थित होना पड़े तो मेरा दावा है कि उपरोक्त पुस्तक कहीं न कहीं आपका मार्गदर्शन कर सकती है। चूंकि आगामी समय में लेखकों को स्वयं याचिकाकर्ता के रूप में माननीय न्यायालय में उपस्थित होकर अपना बचाव करना पड़ेगा। जिसके लिए "याचिका" लिखने की कला अनिवार्य है। जिसके लिए काल्पनिक साहित्य लेखन का कोई महत्व ही नहीं रहेगा।
आदरणीय डॉ रत्न बसोत्रा जी ऐसा परामर्श मैं परम आदरणीय पद्मश्री सम्मान से सम्मानित प्रोफेसर डॉ शिव निर्मोही जी को भी टेलिफोनिक दे चुका हूॅं। जिन्होंने मेरे यहां आकर अपना उल्लू सीधा करने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी थी। उल्लेखनीय है कि वह मेरे घर ज्यौड़ियां उस समय आए थे जब मुझे लेखकों के लेखन की परम आवश्यकता थी। परन्तु उन्होंने भी महान लेखक आदरणीय श्री यशपाल निर्मल जी का नाम लेते हुए मुझे भरी दोपहरी में गेहूं कटी ज़मीन पर पैदल चलाकर बकोर मंदिर की खोज के लिए ले गए थे। रास्ते की कई किलोमीटर की असाधारण यात्रा में उन्होंने मेरे उपर हो रहे शोषण की आवाज़ बुलंद करने हेतु मुझे असंख्य वचन दिए। जो "ढाक के तीन पात" से अधिक कोई महत्व नहीं रखते। जिसके आधार वह मेरी पीड़ाओं के उपहास का ही नहीं बल्कि मानवता और मानवीय संवेदनाओं के दोषी प्रमाणित होते हैं। जिन्हें पद्मश्री सम्मान मिलने पर मैंने स्मरण भी कराया था। जिसपर उन्होंने टेलीफोन पर अपना अपराध स्वीकार करते हुए माना भी था कि वह इंदु भूषण बाली के प्रति कुछ भी न लिख सकने के दोषी हैं। उन्होंने माना था कि उन्होंने अपने वचन को पूरा नहीं किया था। उन्होंने यह भी माना था कि उक्त अपराध के लिए उन्हें लिए ईश्वर भी कभी क्षमा नहीं करेंगे। चूंकि वह वृद्ध अवस्था में पहुंच चुके हैं और वरिष्ठतम नागरिक का जीवनयापन कर रहे हैं। उनके पद्मश्री पुरस्कार पर मेरा प्रश्नचिन्ह एक न एक दिन भारी अवश्य पड़ेगा। उन्हें मेरे पास भेजने वाले विद्वान साहित्यकार सह सम्पादक श्री यशपाल निर्मल जी भलीभांति जानते हैं। संभवतः वह इसी आधार पर और इसी नकारात्मक मनोवृत्ति से अपनी निजी साहित्यिक संस्था में भी मुझे आमंत्रित नहीं करते। जबकि मेरी ईश्वर से प्रार्थना है कि एक ओर साहित्य अकादमी पुरस्कार प्राप्तकर्ता श्री यशपाल निर्मल जी को "सद्बुद्धि" दें और पद्मश्री सम्मान से सम्मानित साहित्यकार प्रोफेसर डॉ शिव निर्मोही जी की आयु लम्बी करें।
आदरणीय डॉ रत्न बसोत्रा जी साहित्यकारों से संवैधानिक प्रश्न पूछने का मेरा मौलिक अधिकार तो आप छीन नहीं सकते और आप किसी संवैधानिक पद पर भी विराजमान नहीं हैं। ऐसे में मैं आपके नाम से पहले "माननीय" शब्द का प्रयोग कैसे कर सकता हूॅं? जबकि यह मेरी संवैधानिक विवशता है कि मैं चाहकर भी आपके नाम से पहले "माननीय" शब्द का प्रयोग नहीं कर सकता हूॅं। हालांकि कल्चरल अकादमी में आप द्वारा अपमान सहने और बुक नहीं करने के बावजूद मैं आपके नाम से पहले "आदरणीय" शब्द का प्रयोग कर रहा हूॅं। जिसके बावजूद आप उस पर "मानहानि" का रोना रो रहे हैं और यहां-वहां फेसबुक पर अंग्रेजी की शब्दावली से माननीय न्यायालय में मेरे विरुद्ध जाने का चर्चा कर रहे हैं। आदरणीय डॉ रत्न बसोत्रा जी क्या आपको ज्ञान है कि मुख्य सम्पादक जैसे कनिष्ठ पद धारक अधिकारी के नाम से पहले मैं तो क्या कोई भी विद्वान "माननीय" शब्द का प्रयोग नहीं कर सकता। चूंकि "माननीय" शब्द विधिक संवैधानिक उच्चस्थ पदों पर विराजमान होने वाले व्यक्तियों के लिए सुरक्षित होता है। जैसेकि माननीय न्यायाधीश, माननीय विधायक/सांसद/मंत्री/राज्यपाल/उपराज्यपाल एवं माननीय महामहिम राष्ट्रपति जी के नाम से पहले उन्हें "माननीय" शब्द से अलंकृत किया जाता है। जबकि आदरणीय डॉ रत्न बसोत्रा जी आप न तो माननीय न्यायाधीश हैं और ना ही माननीय महामहिम राष्ट्रपति हैं।
परन्तु यह सब होने के बावजूद मैं आपको हृदय तल से वचन देता हूॅं कि जब भी आप उपरोक्त किसी भी संवैधानिक पद पर सुशोभित होंगे तो मैं आपको माननीय शब्द से अलंकृत करते हुए सम्मानित अवश्य करूंगा। जिसके लिए मैं आपको सार्वजनिक शपथपत्र भी दे सकता हूॅं। परन्तु सौभाग्यवश पहले इस योग्य तो बन जाएं। तब तक यह तो बता दें कि मंचासीन होने के उपरांत आपके वरिष्ठ साहित्यकार कहां और क्यों लुप्त हो जाते हैं?
अतः आदरणीय डॉ रत्न बसोत्रा जी विभिन्न सरल बिन्दुओं पर आधारित मेरे प्रश्नों का उत्तर देकर कृपया मेरी चिरकाल जिज्ञासाओं को शांत करें और सौहार्दपूर्ण वातावरण को दूषित करते हुए "भयशीलता की पराकाष्ठा" पर न पहुंचें। ध्यान रहे मैं आदिपुरुष से जुड़े विवादों की नहीं बल्कि समसमायिक मात्र पांच दशकों से संबंधित न्यायिक एवं साहित्यिक पुरूषार्थ से जुड़ी नपुंसकता को सार्वजनिक कर रहा हूॅं। जिससे मेरा परिवार सहित सम्पूर्ण जीवन नरक बन चुका है। जिसे उजागर करने के लिए मुझे साधारण जेल तो क्या मृत्युदंड के दंड का भी भय नहीं है। तब पंजाबी गीत "जदूं मेरी अर्थी उठा के चलन गे, चलने गे नाल मेरे दुश्मन भी मेरे, बखरी ए गल हुमहुमा के चलन गे" सुनाई दे रहा था। ॐ शांति ॐ
प्रार्थी
इंदु भूषण बाली
व्यक्तिगत रूप से याचिकाकर्ता (पिटीशनर इन पर्सन)
वरिष्ठ लेखक व पत्रकार, राष्ट्रीय चिंतक, स्वयंसेवक, भ्रष्टाचार के विरुद्ध विश्व की लम्बी ग़ज़ल, राष्ट्रभक्ति एवं मौलिक कर्तव्यों के नारों में विश्व कीर्तिमान स्थापितकर्ता
एवं
भारत के राष्ट्रपति पद का पूर्व प्रत्याशी,
वार्ड अंक 01, डाकघर व तहसील ज्यौड़ियां, जिला जम्मू, केंद्र शासित प्रदेश जम्मू और कश्मीर, पिनकोड 181202।