जम्मू और कश्मीर कला संस्कृति एवं भाषा अकादमी जम्मू को साधुवाद देते हुए मैं हार्दिक गौरवान्वित अनुभव कर रहा हूॅं। जिसके आयोजकों ने सात दिवसीय बहुभाषी कनिष्ठ कहानी महोत्सव का आयोजन किया है। जिसमें डोगरी, हिंदी गोजरी, पहाड़ी, पंजाबी, कश्मीरी और उर्दू भाषा के विद्वान कहानीकार अपनी कहानियों का प्रदर्शन कर रहे हैं। जिन्हें सुनते हुए समय का पता ही नहीं चला कि कब सूर्य पूर्व से पश्चिम को चला गया है। जो वास्तव में सराहनीय कार्यक्रम है। जिसका आज तीसरा दिन है। जिसके लिए मैं कल्चरल अकादमी के कर्मठ विद्वान अधिकारियों सहित आदरणीय सचिव श्री भरथ सिंह मन्हास जी का हृदय तल से आभारी हूॅं। जिन्होंने मुझे उपरोक्त कार्यक्रम में आमंत्रित कर एक ओर मेरा मान बढ़ाया और दूसरी ओर राष्ट्र को दर्शाया था कि कल्चरल अकादमी साहित्यिक ही नहीं बल्कि सामाजिक और राष्ट्रीय मौलिक कर्तव्यों का निष्ठापूर्वक निर्वहन भी कर रही है।
उल्लेखनीय है कि दीप प्रज्जवलित कर महोत्सव का शुभारम्भ डोगरी भाषा की कहानियों से किया गया था। जिसमें डोगरी के महाविद्वान एवं महान कहानीकार आमंत्रित थे। जिनमें से चुनिंदा व्यक्तित्व मंचासीन हुए। जहां पद्मश्री सम्मान से सम्मानित साहित्यकार श्री मोहन सिंह सलाथिया जी मुख्य अतिथि के रूप में विराजमान थे। जिनका स्वागत करते हुए स्वागतीय सम्बोधन में कल्चरल अकादमी के आदरणीय सचिव श्री भरथ सिंह मन्हास जी ने साहस और निर्भीकता का परिचय देते हुए सार्वजनिक रूप से व्यक्तिगत स्वार्थों का त्याग करने का आग्रह किया। उन्होंने दृढ़तापूर्वक कहा कि हम सबको जनहित कार्यों में रुचि रखनी चाहिए और सार्वभौमिक उत्तरदेय होना चाहिए। उन्होंने स्पष्ट कहा कि व्यक्तिगत लाभ से जनहित लाभ सदैव श्रेष्ठ माना जाता है। जिससे अनमोल जीवन सार्थक और सफल ही नहीं होता बल्कि जनहित कार्यों से सुकून भी प्राप्त होता है।
सत्यता तो यह है कि आदरणीय सचिव श्री भरथ सिंह मन्हास जी ने सरलता से अपना वक्तव्य आरम्भ किया और शाब्दिक ज्ञान की गागर में सागर समेटते हुए अद्वितीय, अकल्पनीय और अविश्वसनीय उपदेशों का सत्संग कर अपनी वाणी को शीघ्र ही विराम दे दिया। जबकि सत्य यह भी है कि बड़े बड़े विद्वान भी इतने कम समय में इतना अच्छा वक्तव्य नहीं दे सकते। इसके अलावा कई तथाकथित विद्वान प्रायः आए हुए अतिथियों को आवश्यकता से अधिक नीरसता के अंतर्गत बोर करते हैं। अर्थात जब तक उनकी मानसिक भड़ास समाप्त नहीं हो जाती वह बोलते ही रहते हैं। जिससे कई बार अतिथियों की बोरियत की परिकाष्ठा हो जाती है और उनके भाषण के बंद होते ही अतिथिगण चैन की सांस लेते हैं। परन्तु आदरणीय सचिव श्री भरथ सिंह मन्हास जी ने अपने सम्बोधन में साहित्यकार न होते हुए भी मजे हुए साहित्यकार का परिचय दिया। इसके अलावा भाषाओं के प्रति विशेषकर डोगरी भाषा हेतु उनके चिंतन और मंथन को बारम्बार साधुवाद देना भी कोई अतिश्योक्ति नहीं है।
संभवतः इन्हीं तथ्यों को ध्यान में रखते हुए पद्मश्री पुरस्कार से सम्मानित साहित्यकार श्री मोहन सिंह सलाथिया जी ने जनहित में सचिव श्री भरथ सिंह मन्हास जी की भूरी भूरी प्रसंशा करते हुए डोगरी भाषा के विस्तार का परामर्श दे दिया था। जिसका उपस्थित अतिथियों ने तालियां बजाकर स्वागत भी किया था। वैसे भी पद्मश्री मोहन सिंह सलाथिया जी साहित्य अकादमी परामर्श बोर्ड के वर्तमान संयोजक हैं। जिन्होंने अपने मौलिक कर्तव्य का निर्वहन करते हुए मात्र श्रीनगर में ही नहीं बल्कि जम्मू और कश्मीर के समस्त जिलों में डोगरी के कार्यक्रम करवाने का आग्रह भी कर डाला था। जो एक सराहनीय कदम ही नहीं बल्कि डोगरी भाषा के विकास में मील का पत्थर प्रमाणित होगा।
इसके अतिरिक्त कल्चरल अकादमी जम्मू में सेवारत डोगरी शीराज़ा की सम्पादक श्रीमती रीटा खड़याल जी ने अकादमी में व्याप्त कर्मचारियों एवं अधिकारियों की कमीं पर भी चिंता व्यक्त करते हुए साहित्यिक विशेषज्ञों का ध्यानाकर्षित किया। वास्तविकता यह है कि इतने बड़े आयोजनों पर अकेले कार्य करना लोहे के चने चबाने के समान है। जिसपर केंद्र शासित प्रदेश के माननीय उपराज्यपाल श्री मनोज सिन्हा जी को विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है। क्योंकि लेखक और लेखन को समाज और राष्ट्र की रीढ़ की हड्डी माना जाता है। यूं भी वर्तमान प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी जी और माननीय महामहिम राष्ट्रपति श्रीमती द्रौपदी मुर्मू जी समाज और राष्ट्र को सशक्त करने के लिए अथक पारदर्शी प्रयास कर रहे हैं। जिसके चलते आशा ही नहीं बल्कि विश्वास किया जा सकता है कि वे इस ओर ध्यानाकर्षित अवश्य होंगे और कल्चरल अकादमी को सशक्त बनाएंगे।
शेष बचे अधिकांश वक्ताओं का उल्लेख करने में अक्षमता की क्षमा मांगते हुए वर्णन करना चाहता हूॅं कि कतिपय वक्ताओं द्वारा पुस्तकों के प्रकाशन हेतु अनुदान (सब्सिडी) की मांग शोभनीय नहीं थी। चूंकि उक्त अनुदान गरीब एवं आर्थिक अशक्त लेखकों के लिए दिया जाता है। जो कभी भी आर्थिक अशक्त लेखकों को प्राप्त नहीं हुआ। जिसका कड़वा सच यह है कि उक्त अनुदान (सब्सिडी) लेखन के समंदर के बड़े बड़े आर्थिक सशक्त मगरमच्छों द्वारा हड़प लिया जाता था। जिसके कारण बहुत से आर्थिक अशक्त लेखक अपनी एक भी पुस्तक प्रकाशित किए बिना इस संसार से विदा हो चुके हैं। इसलिए उपरोक्त महापुरुषों के चरित्र चित्रण में स्वार्थ से परिपूर्ण ऊंची दुकानों के फीके पकवानों का उल्लेख करना किसी भी दृष्टिकोण से उचित नहीं है और न ही जनहित अथवा राष्ट्रहित में प्रशंसनीय है।
ऐसे ही प्रथम दिवस की अद्भूत एवं अद्वितीय सकारात्मक सोच से सम्पन्न मैंने के. एल. सहगल सभागार से विधा ली। क्योंकि दूसरे दिन सुबह हिंदी भाषा के साहित्यकारों द्वारा रचित कहानियों के प्रदर्शन का मूल्यांकन करने के लिए मैंने पुनः उपस्थित होना था। ताकि भविष्य की गर्भ में छिपे हिंदी साहित्यिक ज्ञान के ज्ञानियों का गहरा भेद जाना जा सके कि आखिर वह कौन सा कारण है? जिसके कारण आज तक हिंदी भाषा के परामर्श बोर्ड में जम्मू और कश्मीर का कोई भी विद्वान सदस्य तक नहीं बन सका और न ही कोई हिंदी भाषा में साहित्य अकादमी पुरस्कार प्राप्त कर सका? इन्हीं शोध कार्यों में विचारमग्न मैं घर का बुद्धु घर में लौट आया। जय हिन्द। सम्माननीयों ॐ शांति ॐ