चक्रवात अत्यधिक विनाशकारी होते हैं। जिसमें हवाएं तांडव नृत्य करती हैं। जिससे समुद्र का पानी दिवार की भांति आगे बढ़ता है और कम ऊंचाई पर स्थित तटीय क्षेत्रों में प्रवेश कर जाता है। जिसके कारण अनमोल जीवन और संपत्ति की अत्यधिक हानि होती है। जिसमें विशालकाय वृक्ष जड़ों सहित उखड़ जाते हैं। इसके अलावा बड़ी बड़ी कोठियों सहित विधुत और संचार प्रणाली नष्ट हो जाती हैं। अर्थात चारों ओर तबाही ही तबाही दिखाई देती है। मानों प्रकृति ने रूद्र रूप धारण कर प्रलय मचाने का मन बना लिया हो। जहां सीना तान कर खड़ा रहना असम्भव हो जाता है।
ऐसे महा विनाशकारी चक्रवात को मैंने अपने सरकारी सेवाकाल में गुजरात के जामनगर में झेला था। चूंकि जामनगर समुद्र तट पर स्थित है और उस समय मैं सशस्त्र सीमा बल विभाग में वरिष्ठ क्षेत्र सहायक (मेडिकल) के पद पर कार्यरत था। जहां हमारे वरिष्ठ अधिकारियों ने सुबह से ही हमें बता दिया था कि शीघ्र ही हम महाविनाश चक्रवात का युद्धस्तर पर सामना करने वाले हैं। जिसमें आवश्यकता पड़ने पर हमें अपनी योग्यता, कौशल और प्रतिभा के अनुसार चक्रवात प्रभावित नागरिकों की प्राथमिकता के आधार पर सहायता करनी है। मेरा अपने जीवन में यह पहला अनुभव था।
चूंकि मैं आंतों के क्षय (टी.बी) रोग से ग्रस्त था और मेरी ड्यूटी विभागीय (एसएसबी) एम आई रूम में रात भर की होती थी। जिसके कारण मुझे दिन में छुट्टी होती थी। मुझे भलीभांति स्मरण है कि उस दिन मेरी प्रिय धर्मपत्नी श्रीमती सुशीला बाली ने अपने माइके ऊधमपुर से मेरी कुशलता हेतु फोन पर पूरे 500 रुपए खर्च किए थे। जिसमें मैंने आगामी महा विनाशकारी चक्रवात का सम्पूर्ण विवरण देते हुए बताया था कि यदि मैं चक्रवात की भेंट चढ़ गया तो हमारे ऊपर विभागीय क्रूर अधिकारियों द्वारा की गई क्रूरता के साक्ष्य नष्ट नहीं करना। उसमें मैंने अपने भ्रष्ट वरिष्ठ स्वास्थ्य अधिकारी (एसएमओ) के विरुद्ध भी बताया था कि उक्त स्वास्थ्य अधिकारी मुझे शक्तिवर्धक केप्सूल नहीं देता। मेरे अलावा हिमाचल प्रदेश के कर्मचारी भी अपने अपने घरों में अपनी कुशलता की सूचना देते हुए बता रहे थे कि चिंता मत करना। चूंकि संचार व्यवस्था अभी ठप्प होने वाली है।
अपनी प्रिय धर्मपत्नी से बात करने की खुशी के नशे में चूर मैं अपने टेंट में आकर लेट गया और अपने बर्बाद दाम्पत्य जीवन में उपरोक्त टेलीफोनिक सुख के पलों का आनन्द लेते हुए कब सो गया था? उसका कुछ पता नहीं चला। कुछ अन्तराल के बाद मेरी नींद खुली तो वर्षा की छोटी छोटी बूंदों से महा विनाशकारी चक्रवात का आरंभ हो चुका था। मैं टेंट से बाहर निकल आया और इधर उधर घूमने लगा। घूमते घूमते पहले की भांति मैं विभागीय मंदिर में जाकर झाड़ू लगाने लगा। इस बात से प्रसन्न था कि अब मृत्यु होने वाली है। जिसके कारण विभागीय भ्रष्ट अधिकारियों की प्रताड़ना से मुझे मुक्ति मिल जाएगी।
देखते ही देखते तूफ़ान का भंयकर दृश्य देखने को मिला। विभागीय खड़ी गाड़ियां दौड़ती दिखाई दे रही थीं। विभागीय स्वास्थ्य चिकित्सालय की लोहे की चादरें आकाश में पतंग की भांति उड़ रही थीं। देखते ही देखते एक कर्मचारी तूफ़ान की तीव्र आंधी से उड़ा और पास ही पेड़ से अटक गया था। हम एक मकान में दुबके राम नाम का जाप करते हुए ईश्वर को स्मरण कर रहे थे। वर्षा की ऐसी तीव्रता पहले कभी नहीं देखी थी।
बीच में कुछ समय के लिए तूफ़ान की तीव्रता कम हुई और हमें सामान सहित दूसरी सरकारी सीमेंटेड बिल्डिंग में शिफ्ट होने का आदेश मिला। जहां उक्त भ्रष्ट स्वास्थ्य अधिकारी ने मुझसे माचिस मांग कर अपने लिए समस्या खड़ी कर ली थी। चूंकि वह छुट्टी या फरलो भेजने वाले जवानों से सिगरेट का पैकेट भ्रष्टाचार के रूप में मांगकर लेता था और उस सिगरेट को सुलगाने हेतु मेरे से माचिस मांग कर फस गया। चूंकि उसकी सारी सच्चाई मैंने हमारे ग्रुप सेंटर के कमांडैंट महोदय को बता दी थी। जिसपर कमांडैंट महोदय ने उसे खूब खरी खोटी सुनाते हुए डांट दिया था। परन्तु वह भ्रष्टाचार रूपी मानसिक रोग की अंतिम स्टेज़ पर पहुंच चुका था। इसलिए उसे ज्यादा दंडित नहीं किया गया था।
ईश्वरीय कृपा यह रही कि हमारे ग्रुप सेंटर जामनगर में महा विनाशकारी चक्रवात से किसी भी जवान को खरोंच तक नहीं आई थी। जिसपर मैंने अपने मौलिक कर्तव्यों का पालन करते हुए "एसएसबी ग्रुप सेंटर जामनगर और प्राकृतिक आपदा" नामक आलेख लिखकर अपने संबंधित अधिकारी को पढ़ाया। जिन्होंने उक्त आलेख को कमांडैंट महोदय जी को सुनाने हेतु मेरा मार्गदर्शन किया। मैंने तुरन्त कमांडैंट महोदय को सारा आलेख पढ़कर सुना दिया था। सौभाग्यवश मेरा आलेख सुनकर उन्होंने प्रसन्नतापूर्वक मुझे मौखिक शाबाशी दी और मेरा आलेख एसएसबी की विभागीय पत्रिका में प्रकाशित करवाने हेतु भेज दिया था। परन्तु उस आलेख को उक्त पत्रिका में स्थान मिला या नहीं मिला। मुझे इसका कोई ज्ञान नहीं है चूंकि उसके उपरांत विभाग द्वारा माननीय जम्मू और कश्मीर उच्च न्यायालय के आदेश की अवमानना करते हुए मुझे जम्मू और कश्मीर के आतंकवादग्रस्त पुंछ क्षेत्र में स्थानांतरित कर दिया था। जहां से तपेदिक रोग के उपचाराधीन होते हुए भी मुझे "मानसिक दिव्यांगता" के हवाले से असंवैधानिक रूप से नौकरी से बर्खास्त कर दिया था। जिसके लिए मैं कई दशकों से न्यायिक युद्ध लड़ते हुए माननीय जम्मू और कश्मीर और लद्दाख उच्च न्यायालय से सम्पूर्ण न्याय की मांग कर रहा हूॅं और न्याय के करीब पहुंच चुका हूॅं।
अतः मुझे प्रकृति ने तो नहीं मारा परन्तु मानवीय भ्रष्ट एवं क्रूर मानवीय प्रवृत्तियों ने कहीं का नहीं छोड़ा था। जिसके आधार पर मैं वर्तमान में भी बिना अपराध के आर्थिक, शारीरिक, मानसिक और सामाजिक तिरस्कार का दंड अपने परिवार से अलग रहकर भोग रहा हूॅं। जो अपने-आप में एक अंतर्राष्ट्रीय महा विनाशकारी चक्रवात से भी कहीं ज्यादा विनाशकारी है। जिसकी क्षतिपूर्ति कभी नहीं हो सकती। सम्माननीयों जय हिन्द