जीवन एक खुली चुनौती है और चुनौतियों से भरा सम्पूर्ण जीवन है। जिसमें हम सब एक ओर मौजमस्ती करते हुए अपनी यात्रा में अग्रसर हो रहे हैं और दूसरी ओर नर्क भोगते हुए जीवनयापन कर रहे हैं। जबकि पृथ्वी एक ही है और ब्रह्माण्ड भी एक ही है। उसके प्राकृतिक संसाधन एक से हैं। जीवों में नर और मादा की प्राकृतिक संरचना एक सी है। परन्तु उसी भ्रमित मकड़जाल में हम विभिन्न नावों पर सवार होकर सुख और दुःख भोग रहे हैं। जिन्हें हमारे धार्मिक ग्रंथों में "कर्मफल" की संज्ञा दी गई है। अर्थात जिस प्रकार के हम कर्म करते हैं, उसी प्रकार के हमें फल मिलते हैं। कहने का अभिप्राय यह है कि बबूल का पेड़ बोनें पर उससे आम तो प्राप्त नहीं किए जा सकते।
जबकि मैंने प्रायः संवैधानिक मौलिक कर्तव्यों के बीज ही बोए हैं। ऐसे में मुझे दरिद्रता, असहनीय शोषण, पीड़ाएं और अंततः सार्वभौमिक तिरस्कार क्यों मिला है? यहां तक कि मैं अपने परिवार से भी अलग हो चुका हूॅं। इसके अलावा विद्वान मनोचिकित्सकों द्वारा मानसिक स्वस्थ घोषित होने के बावजूद प्रत्येक माह भारत सरकार मुझे बलपूर्वक "पागल" की पेंशन देकर सार्वजनिक "मानहानि" कर रही है। जबकि मैं तपेदिक चिकित्सकों द्वारा घोषित "तपेदिक रोग" में रोग निवारक दवाइयों की मांग करता रहा हूॅं। इनके संबंधित समाधान हेतु किन विद्वानों से प्रश्न करूं?
इन परिस्थितियों में कुछ वर्ष पहले "राष्ट्र के नाम संदेश" नामक ग़ज़ल संग्रह के आधार पर मुझे जम्मू कश्मीर कला संस्कृति एवं भाषा अकादमी जम्मू की हिंदी सम्पादक आदरणीय ही नहीं बल्कि पूज्यनीय श्रीमती रीटा खड़याल जी का भरपूर समर्थन मिला था। जिन्होंने मुझे उच्च कोटि का लेखक मानते हुए अकादमी के हिंदी शीराज़ा और आयोजित कार्यक्रमों में सादर आमंत्रित करना आरम्भ कर दिया था। जिसकी आधारशिला पर मेरा व्यक्तित्व निखर गया था। जो मेरे तथाकथित विद्वान शुभचिंतकों की ऑंखों में चुभने लगा था। वैसे भी "निर्मल" नाम रख लेने से किसी का चरित्र निर्मल नहीं हो जाता और साहित्य अकादमी दिल्ली द्वारा पुरस्कृत कर देने मात्र से महान नहीं बन जाता है।
उदाहरणार्थ जिनकी ऑंखें चुभन अनुभव कर रही थी। उनका सर्वप्रथम दुष्प्रभाव देखने को यह मिला था कि हिंदी शीराज़ा की सम्पादक आदरणीय श्रीमती रीटा खड़याल जी को उनके पूर्ववत सह सम्पादक के पद पर बैठा दिया था। हिंदी शीराज़ा के दायित्व का सम्पूर्ण भार आदरणीय डॉ रत्न बसोत्रा जी के कंधों पर डाल दिया था। इसके अलावा मुझे यशपाल निर्मल जी की निजी साहित्यिक संस्था के पदाधिकारी द्वारा मंच संचालक बनाकर उनके द्वारा मंच पर मेरा अपमान करवाना शामिल है। जिससे आदरणीय सह सम्पादक श्री यशपाल "निर्मल" जी की निर्मलता पर प्रश्नचिन्ह लगता है। इसके बावजूद आदरणीय डॉ रत्न बसोत्रा जी मेरे आलेखों सहित मंचासीन विद्वानों से साहित्य संबंधी प्रश्न पूछना उन्हें निजी "मानहानि" लग रहा है। जबकि मैं तो सरकारी संस्था "जम्मू कश्मीर कला संस्कृति एवं भाषा अकादमी" में भ्रष्टाचार पर आधारित देशहित में प्रश्न पूछते हुए अपने मौलिक कर्तव्यों का पालन कर रहा हूॅं। जिसपर वर्तमान अकादमी सचिव श्री भरथ सिंह मन्हास जी एवं कल्चरल आफिसर आदरणीय डॉ शहनवाज जी को भी कोई आपत्ति नहीं है।
उल्लेखनीय है कि कुछ माह पहले अकादमी के आदरणीय सचिव श्री भरथ सिंह मन्हास जी के कुशल नेतृत्व में अकादमी द्वारा आयोजित कार्यक्रमों की रूपरेखा एवं जानकारियां वाट्सअप पर उपलब्ध करवाने का निश्चय किया था। जिसमें डोगरी सह सम्पादक आदरणीय श्री यशपाल निर्मल जी और मुख्य सम्पादक आदरणीय डॉ रत्न बसोत्रा जी एडमिन बने। जिसमें लेखकों के लिए आवश्यक जानकारियों को दुर्भावनावश छुपाया जा रहा था। जैसे आयोजित कार्यक्रम में कितने कवियों को सूचीबद्ध किया गया है और उस सूची में कौन-कौन से कवि शामिल हैं?
उल्लेखनीय है कि पूछे गए प्रश्नों के उत्तर देने में आदरणीय यशपाल निर्मल जी और डॉ रत्न बसोत्रा जी विफल हुए थे। अर्थात उनका रचाया चक्रव्यूह टूटने की कगार पर पहुंच चुका था कि उन्होंने सबकी प्रतिक्रियाओं को वाट्सअप पर डालने पर प्रतिबंध लगा दिया। जिससे घोषित हो गया था कि एडमिनों के अलावा कोई लेखक उक्त वाट्सअप पर अपनी प्रतिक्रिया नहीं दे सकेगा। जिससे प्रख्यात रचनाकारों को भी साहित्यिक धक्का लगा था और वह सीधे अकादमी के अति संवेदनशील सौहार्दपूर्ण चर्चा करने वाले सचिव श्री भरथ सिंह मन्हास जी से टेलीफोनिकली संपर्क साधने लगे। जिसमें दुर्भाग्यवश उन्होंने कई साहित्यकारों के क्रोध को भी झेला। परन्तु उन्होंने धैर्य एवं प्रशासनिक विद्वता से सबका मन मोह लिया था। जिससे पूर्व और वर्तमान सचिवों के प्रति वर्षों से किए जा रहे दुष्प्रचार पर लगाम लग गई। जिससे स्पष्ट हो गया था कि सचिवों के प्रति दुष्प्रचार कर अनचाहे सुयोग्य लेखकों को आमंत्रित न कर आदरणीय श्री यशपाल निर्मल जी और डॉ रत्न बसोत्रा जी एक तीर से दो निशाने लगाते थे। चूंकि अधिकांश सचिव कश्मीर के होते थे। जबकि वर्तमान सचिव आदरणीय श्री भरथ सिंह मन्हास जी प्रत्येक छोटे बड़े रचनाकार को सौहार्दपूर्ण वातावरण में प्रेम बांट रहे हैं और सबसे मिलनसार होते हुए अपने कार्यालय के दरवाजे खोलकर बैठे हैं। जिसपर सोने पर सुहागा यह भी है कि उन्हें मृदुभाषी कल्चरल आफीसर आदरणीय डॉ शहनवाज जी का सम्पूर्ण सहयोग भी प्राप्त हो रहा है।
उल्लेखनीय है कि आदरणीय डॉ शहनवाज जी खुले मन से समस्त लेखकों को अकादमी का परिवार मानते हैं। ऐसे में आदरणीय श्री यशपाल निर्मल जी और आदरणीय डॉ रत्न बसोत्रा जी की विशेष दाल नहीं गल रही है। जिससे आदरणीय यशपाल निर्मल जी एवं आदरणीय डॉ रत्न बसोत्रा जी का सहयोगियों सहित तिलमिलाना स्वाभाविक है। चूंकि "शत्रु को पहचानें" की श्रृंखला में साहित्यिक शत्रुओं की पहचान होनी आरम्भ हो चुकी है। जिसे किसी भी दृष्टिकोण से "मानहानि" का चोला नहीं पहनाया जा सकता। ॐ शांति ॐ