मॉं के गर्भ से ही मैं क्रोधी स्वभाव का नहीं हूॅं और न ही मॉं ने मुझे ऐसा लिखना सिखाया है। क्योंकि जब तक मेरी मॉं जीवित रहीं, वह मुझे धैर्य का पाठ यह कहते हुए पढ़ाती रही थीं कि "डुल्ले बेरॉं दा कुज नहीं बिगड़दा", अर्थात यह सिखाती रही थीं कि भूमि पर बेरों के गिरने से बेरों का कुछ नहीं बिगड़ता। कितने सुहाने थे वे दिन, जिन दिनों में मैं अपनी मॉं की गोद में स्वर्ग अनुभव करता था।
समय ने अंगड़ाई ली और मैं सामाजिक कुरीतियों एवं व्यवस्थित भ्रष्टाचार के आधार पर भाई-भाभियों के षड्यंत्रों का भी खुलकर शिकार हुआ था और मॉं के ऑंचल से दूर हो गया था। यहॉं तक कि बाल्यावस्था से लेकर मॉं की सेवा करने और सभी भाइयों को एकत्रित करने के बावजूद अंतिम समय पर अर्थात मॉं द्वारा अंतिम सॉंस लेते समय मैं उनके पास उपस्थित नहीं था। जिसका मुझे आज भी खेद है।
सामाजिक कुरीतियों एवं भ्रष्टाचार का भले ही मैं बाल भी बॉंका नहीं कर सका हूॅं परन्तु आज जब भ्रष्टाचारियों पर निशाना साधता हूॅं तो उनके द्वारा रण छोड़ कर भागना मुझे आत्मिक संतुष्ट अवश्य करता है। यह रण भले पारिवारिक, सामाजिक, प्रशासनिक, आकादमिक अथवा माननीय न्यायालय का ही क्यों न हो? मुझे मानसिक तृप्ति अवश्य हो रही है और यह सब तब से प्राप्त हो रहा है जबसे मैंने याचिका लेखन विधा सीखी है और उक्त संतोषजनक साहित्यिक विधा के आधार पर मैंने क्रूरतम से क्रूरतम प्रशासनिक एवं न्यायिक भ्रष्टाचारियों के चुनौतीपूर्ण छक्के दौड़ा दौड़ाकर छुड़ाए हैं।
उल्लेखनीय यह भी है कि कल्पना में खोए, वे विक्षिप्त मानसिक लेखक माननीय न्यायालय की भूमिका कुछ भी बताएं परन्तु सौभाग्यवश कटुसत्य यह है कि वहॉं स्वयं याचिकाकर्ताओं को सत्य के दर्शन अवश्य होते हैं और देर सवेर न्याय मिलने की आशा भी जीवनभर बंधी रहती है। क्योंकि कानून के हाथ लम्बे होते हैं और वह लम्बे हाथ एक न एक दिन क्रूर भ्रष्टाचारियों की गर्दन का नाप ले ही लेते हैं।
यही ठोस कारण हैं कि अधिकॉंश भ्रष्ट साहित्यकार मुझसे कन्नी काटते थे, काट रहे हैं और काटते रहेंगे। उनके कहने पर ही मुझे जम्मू कश्मीर कला संस्कृति एवं भाषा अकादमी से दूर रखा जा रहा है। हालॉंकि दुर्भाग्यवश कुछेक भ्रष्ट साहित्यकारों ने मुझे नेगेटिव अर्थात नकारात्मक लेखक कहते हुए अकादमी के अधिकारियों को अग्रिम सूचित भी किया था। लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी। चूॅंकि सुचेतकर्ता मेरी पेनी दृष्टि और कलम की तेजधार को पहले से जानते थे और वह यह भी भलीभॉंति जानते थे कि वे मेरे समक्ष अधिक देर तक ठहर नहीं पाएंगे। जानते तो वह यह भी थे कि यह व्यक्ति पहले ही अपना सबकुछ खो चुका है और उसके उपरांत भी संघर्षरत है, तो इससे सीधा पंगा महॅंगा पड़ सकता है। क्योंकि वे अपने और मेरे चरित्र से भी परिचित हैं और सर्वविदित है कि चरित्रहीन व्यक्तित्व चरित्रवान व्यक्तित्व से क्यों उलझेंगे?
मुझे भी उनके कायरतापूर्ण लुप्त होने पर ही चैन मिल रहा है। क्योंकि मैं भी भलीभॉंति जानता हूॅं कि ऐसे संवेदनहीन लेखक वास्तव में सामाजिक एवं सांस्कृतिक कलंक होते हैं, जो पीड़ितों की चुनौतीपूर्ण पीड़ाओं को उजागर करने के स्थान पर साहित्य अकादमी पुरस्कार अथवा पद्म पुरस्कार प्राप्ति हेतु काल्पनिक साहित्य की रचना करें और अपने आस-पास तपेदिक रोग जैसे अंतर्राष्ट्रीय जानलेवा रोगों से रोगग्रस्त रोगियों को मरने के लिए रामभरोसे छोड़ दें। सम्माननीयों जय हिन्द
प्रार्थी
इंदु भूषण बाली
व्यक्तिगत रूप से याचिकाकर्ता (पीटीशनर इन पर्सन)।
वरिष्ठ अंतरराष्ट्रीय लेखक व राष्ट्रीय पत्रकार, राष्ट्रीय चिंतक, आरएसएस का स्वयंसेवक, भ्रष्टाचार के विरुद्ध विश्व की लम्बी ग़ज़ल, राष्ट्रभक्ति एवं मौलिक कर्तव्यों के नारों में विश्व कीर्तिमान स्थापितकर्ता
एवं
भारत के राष्ट्रपति पद का पूर्व प्रत्याशी,
वार्ड अंक 01, डाकघर व तहसील ज्यौड़ियां, जनपद जम्मू, केंद्र शासित प्रदेश जम्मू और कश्मीर, पिनकोड 181202।