मानव का मन और मस्तिष्क एकांत होकर ही एकाग्रचित्त होता है। जिसमें "सागर" गागर में सिमट जाता है और आसमान धरती पर आ जाता है। वही एकाग्रता काम, क्रोध, लोह, मोह और अंहकार रूपी मानवीय मूल्यों पर भारी पड़ने वाले पांचों सशक्त शत्रुओं को वश में कर लेती है। उसी एकाग्रता की अग्नि में "काम" कब भस्म हो जाता है, "क्रोध" कब शीतलता में परिवर्तित हो जाता है, "लोह" कब व्यर्थ लगने लगता है, "मोह" कब भंग हो जाता है और "अंहकार" कब निरहंकार होकर विनम्रता में विलीन हो जाता है ? अर्थात काम, क्रोध, लोह, मोह और अंहकार कब मानवीय मनोभाव के चक्षुओं को खोलकर लुप्त हो जाते हैं? किसी को भी मालूम नहीं पड़ता।
यहां तक कि त्रेता युग के महाविद्वान एवं परम अहंकारी राजा रावण का अहंकार भी उसकी मृत्यु से क्षणिक पूर्व अपनी एकांत अवस्था में समाप्त हो गया था। जिसका उदहारण यह है कि महापंडित रावण ने श्री लक्ष्मण जी को शिक्षा देते हुए कहा था कि "परस्त्री का हरण" कदापि नहीं करना चाहिए। हालांकि रावण ने यह अपराध अहंकारवश स्वयं किया था। जिसका दंड समूचे लंकावासियों को भोगना पड़ा था। यहां तक कि श्रीराम जी की सहायता करने के बावजूद विभीषण जी को आज तक "घर का भेदी लंका ढाय" की अपमानजनक कहावत से अपमानित किया जाता है और भविष्य में भी किया जाता रहेगा। जिसके चरित्र को चरितार्थ करते समय समसमायिक तथाकथित विद्वान कुलद्रोहियों को शिक्षा लेनी चाहिए और कुल के भीतर किसी का बसा बसाया घर उजाड़ने सहित किसी की संतान को सन्तान द्रोह का पाठ नहीं पढ़ाना चाहिए।
मानव का उल्लेखनीय दुर्भाग्य यह है कि वर्तमान कलयुग में भी काम, क्रोध, लोह, मोह और अहंकार सिर चढ़कर बोल रहा है। जिसके अमानवीय उदाहरण देश के विभिन्न क्षेत्रों में देखने को मिल रहे हैं और संविधान के चारों सशक्त स्तंभ दिव्यांगता का परिचय दे रहे हैं। जबकि मानवता त्राहिमाम त्राहिमाम और त्राहिमाम करते हुए घर-घर की करूणामय कहानी बन चुकी है। परन्तु उक्त त्राहिमाम से उभरने का घरों से लेकर राष्ट्र और राष्ट्र से लेकर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर समाधान हेतु कोई प्रयास नहीं कर रहा है। जो निंदनीय है और इसे ईश्वरीय इच्छा मानना ईश्वर का घोर अपमान है।
जिसका मूल आधार यह है कि हम सब अपने अपने मौलिक कर्तव्यों का मृत्यु तक निष्ठापूर्वक निर्वहन नहीं करते हैं। क्योंकि सम्पूर्ण सृष्टि के मानव अपने आप को अकेला मानते हैं और जीवनभर उक्त नकारात्मकता को बढ़ावा देते रहते हैं कि मेरे अकेले द्वारा मौलिक कर्तव्यों को पूरा करने से क्या लाभ होगा? जिससे प्रेरित होकर माननीय न्यायालय के कतिपय माननीय न्यायाधीश, संसद के सांसद, शिक्षक, विधानसभा के विधायक, आयोगों के आयुक्त, संगठनों के निर्देशक और उच्च पदों से लेकर चतुर्थ श्रेणी के कर्मचारी तक अपने दायित्वों के प्रति अपने मौलिक अधिकारों को प्राथमिकता देते हुए अपने मौलिक कर्तव्य नहीं निभाते हैं। जबकि क्रांति एक ही मानव से आरम्भ होती है और आग के शोले की भांति सम्पूर्ण वन को जला कर राख कर देती है।
परन्तु समाज की एक सामाजिक कुप्रथा यह भी प्रचलित है कि मृत्युपरांत बुरे से बुरे व्यक्ति को भी बुरा नहीं कहा जाता है। जिसके कारण बुराइयों को बल मिल रहा है और अच्छाइयों में कमियां आ रही हैं। चूंकि सच को झूठ के सुनहरे आवरण से ढक दिया जाता है। यहां तक कि आत्महत्या को डॉक्टरों द्वारा "हृदय आघात" का चोला पहनाते कईयों ने अपनी खुली ऑंखों से देखा है। जिसमें आत्महत्या करने वाले प्राणी के पारिवारिक सदस्यों के भी स्वार्थवश स्पष्ट हस्ताक्षर होते हैं। जिनके विरुद्ध कुछ निस्वार्थी लोग विरोधाभासी ध्वनि को भी बुलंद करते हैं। परन्तु विश्व के सर्वोच्च लिखित लोकतांत्रिक संविधान के प्रकाश में भी स्वार्थी लोग उन्हें पागल घोषित कर देते हैं। हालांकि सत्य कभी नहीं मरता और पीठ पीछे लोग सत्य को उजागर करते हुए अच्छों को अच्छा भले ही न कहें पर बुरों को बुरा अवश्य कहते हैं।
संभवतः युगों युगों से मानव की मानवता का यही हश्र होता आया है और भविष्य में भी इसी प्रकार मानवीय संवेदनाओं का गला घोंटकर यूं ही हश्र होता रहेगा। जय हिन्द। सम्माननीयों ॐ शांति ॐ
प्रार्थी
इंदु भूषण बाली
व्यक्तिगत रूप से याचिकाकर्ता (पिटीशनर इन पर्सन)
वरिष्ठ लेखक व पत्रकार, राष्ट्रीय चिंतक, स्वयंसेवक, भ्रष्टाचार के विरुद्ध विश्व की लम्बी ग़ज़ल, राष्ट्रभक्ति एवं मौलिक कर्तव्यों के नारों में विश्व कीर्तिमान स्थापितकर्ता
एवं
भारत के राष्ट्रपति पद का पूर्व प्रत्याशी,
वार्ड अंक 01, डाकघर व तहसील ज्यौड़ियां, जिला जम्मू, केंद्र शासित प्रदेश जम्मू और कश्मीर, पिनकोड 181202।