
***ग़ज़ल***
है अंधेरों का उजालों से मिलन,
बेवसी भी है सवालों में घुटन।
उठ गया फिर आज रिश्तों से यकीन,
अपने ही घर फूंकते करते दमन।
बच गया या बुझ गया है हौंसला,
तुम कहो तो बाँध ले सर से कफ़न।
छोड़ दो ज़िद आ गले लग जाएँ हम,
भरने लग जाएंगे फिर दिल के ज़ख्म।
बांध मत हमको हद-ऐ-ज़ंज़ीर से,
हैं हवाओं में अभी कांटे चुभन।
बैठ कर साहिल पे दिल घबराएगा,
फंस गया मौजों में है लुत्फ़-ए-सुखन।
काश उम्मीदों के फिर से पंख लग जाएँ,
इक दफा फिर चूम कर आयें गगन।