आंधियां फिर से पलट कर आ गईं,
और भी ज्यादा कहर बरपा गईं।
फिरते कांधो पर उठाये ज़िन्दगी,
बोझ काफी था कमर दोहरा गईं।
चाक़ हैं अपना गिरेबां आज भी,
देख कर शायद ख़ुशी क़तरा गई।
जिन दरख्तों की जड़ें गहरी ना थी,
पेड़ भी शाखें सभी मुरझा गईं।
बांटना होता तो देते दर्द क्यों,
जम गये आंसूं नजर पथरा गईं।
गोद में आता नहीं दौड़कर बच्चा,
नन्ही-नन्हीं ख्वाहिशें घबरा गईं।
आएगा तुम देखना ख़त का जवाब,
लिख्ते-लिखते उँगलियाँ शरमा गईं।