अरे रोको हवाओं को ये फिर वहशी हुई हैं क्यों,
किसी अंगार के मानिंद दहकती पिघली हुई हैं क्यों।
चारों तरफ है शोर है फ़िरक़ा-परश्ती क्या हुआ है,
आरती और अज़ानों की फिजां बिगड़ी हुई है क्यों।
कोई क़ाफ़िर मुकद्दर लिख गया है तेरा मुस्तक़बिल,
हमारे गुलिस्तां की आबो-हवा उजड़ी हुई है क्यों।
गीता,कुरान आज-कल केवल किताबें बन गईं हैं,
आधे-अधूरे इल्म की ठंडी हवा हावी हुई हैं क्यों।
खोले हैं तुमने रंजिशों के फिर बही खाते दुवारा,
तेरी प्यास ये अपने लहू की बुझती नहीं है क्यों।
माना मैं तेरे बज्म की रौनक नहीं फिर भी तो हूँ,
आखिर हमारे नाम से नफरत इतनी हुई है क्यों।
और किस हद तक गुनाहों की करोगे पैरवी कब तक,
बेशर्म ये तेरी नज़र भी शर्म से झुकती नहीं है क्यों।