भीड़ में बैठा वो तन्हा आदमी देखा,
आसमां छूते कभी टूटा यकीं देखा।
खूब आँखों में जुनू था खून में गर्मीं,
आज अपने पाँव पर चलते नहीं देखा।
टूटना मंजूर था झुकना नहीं लेकिन,
एक मुद्दत से उसे सीधा नहीं देखा।
आंधियो को मोड़कर आगे निकल जाते,
वा ज़िद उसे हालात बदलते यहीं देखा।
ये ज़िद हमें किस मोड़ पर ले आई है,
रोशनी,सूरज जहाँ बुझते नहीं देखा।
वाह खूब तराशा ज़िन्दगी को वक़्त ने,
पर कभी भी झूमते हँसते नहीं देखा।
वो मुझे खिलौना समझ के खेलते रहे,
'अनुराग' ने नक़ाब उतरते नहीं देखा।
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अवधेश प्रताप सिंह भदौरिया 'अनुराग' :-0७/0७/२०१६