भूख प्यास मजबूरी का आलम देखा,
जब से होश संभाला केवल ग़म देखा।
नहीं मिला ठहराव भटकते क़दमों को,
जिसके भी मन में झाँका बेदम देखा।
वादों और विवादों की तक़रीर सुनी,
जख्मीं होंठों पर सूखा मरहम देखा।
बिना किये बरसात बदरिया चली गई,
कई मर्तबा ऐसा भी मौसम देखा।
सर पे छप्पर नहीं मह्ज नीला अम्बर था,
उन आंखों में स्वाभिमान हरदम देखा।
सेवा में मादर-ए-वतन की सरहद पर,
उस जवान ने अपना ही घर कम देखा।
जिनकी हुंकारों से दुश्मन काँप उठा हो,
उन आवाजों में दर्द आँख को नम देखा।
तार-तार हो गया गिरेबां घायल मन,
उनके हाथों में अकसर परचम देखा।