दर्द देती रही ये ख़ुशी उम्र भर,
ना बुझी ना जली रौशनी उम्र भर।
बात दिल की सुनी-अनसुनी हो गई,
आप करते रहे दिल्लगी उम्र भर।
ठोकरों में रहा मैं तमाशा बना,
यूँ तराशा गया हर घडी उम्र भर।
था सफर भी नया मोड़ भी अजनबीं,
मैं भटकता रहा बस युहीं उम्र भर
दो किनारे मगर प्यास मंझधार में,
छटपटाती रही इक नदी उम्र भर।
ना बनी चाहतें कारवां, मंजिलें,
आग शायद सुलगती रही उम्र भर।
कुछ नहीं कह सकीं मेरि खामोशियाँ,
और बढती रही बेखुदी उम्र भर
लौटकर मौत के बाद आते नहीं,
पर नजर राह तकती रही उम्र भर।
ले गईं घर उडा कर मिरा आंधियां,
हम बनाते रहे थे सही उम्र भर