कुछ भी नहीं बदला,बदल कर ज़िन्दगी,
ना ज़माना,लोग, ना काफिर दिल्लगी।
है खा गई मशहूरियत ज़हनी शकून,
रहता अँधेरे में , मुजाहिर रौशनी।
बहुत कम आते हैं मौसम खुशगवार,
है मुस्कुराने में तो माहिर आदमीं।
गुम गया कुछ क़दर कि उम्र भर भटका,
पांव सफर में हैं मुसाफिर आदमीं।
बेजुबां , बेजान ज़िंदा बुत्त बना है,
बस कुछ नहीं है दर्द ज़ाहिर लाजिमीं।
हर तरफ माहौल पर ताले लगे हैं ,
है किस क़दर मजबूर आखिर ज़िन्दगी।
शुक्रिया अहल-ए- इबादत घर जले हैं,/
'अनुराग' पुख्ता यकीं है शातिर बन्दिगी।
अवधेश सिंह भदौरिया'अनुराग'Dt. 09042016/ccrai/olp.doct