घिर गया आदमीं फिर सवालों के घेरे में,
ये हमारी ज़िन्दगी फंस गई है अँधेरे में।
उड़ते-फिरते हैं तितलियों की तरह लेकिन,
बहुत जख्मीं परिंदे थे नही लौटे बसेरे में।
और अच्छा मिल गया होगा तुम्हे तो हमसफर,
हूँ आज तक तन्हा तेरी यादों के डेरे में।
जिस आग में अब तक जला हूँ वह बुझी कब थी,
मुझे फर्क कुछ दिखता नहीं 'शब' में सबेरे में।
बीती बातों की सफाई गिले-शिक़वे मगर ,
अब भी बाँकी है कशिश तेरे में, मेरे में।
जब वक़्त की स्याही में घुल मिल जाएगा वजूद,
उभर कर आएंगे लिख्खे हुए अक्षर सुनहरे में।
ये गिरेबां पैरहन है धज्जी-धज्जी तार-तार,
बुनकर नहीं पड़ते कभी धागों के फेरे में।
अवधेश प्रताप सिंह भदौरिया'अनुरागDt.08042016/ccrai/olp/doct.