***ग़ज़ल***
साहिल को नहीं मैंने,समंदर को चुना है,
ये ज़िन्दगी है मेरी,ये मेरा फैसला है।
बुझ भी गया अगर मैं जलता रहेगा मंज़र,
पथ्थर धड़क उड़ेंगे ये मेरा हौंसला है।
बैठा नहीं हूँ थक कर तक़दीर के भरोसे,
भटके हुये मुसाफिर का हाथ थामना है।
बदले हवाओं के रुख,उनके खिलाफ जाकर,
तिनके उठा-उठा कर इक आशियाँ बुना है।
मैं टूट जाऊंगा गर तोड़ोगे मुझे दिल से,
वरना ये जिस्म मेरा फौलाद से बना है।
मैं उजड़े गुलिस्तां का कोई खंडहर नहीं हूँ,
मुझमें बुलंदियों की सौ मौज-ए-बहारां है।
सर पर क़फ़न पहन कर हर रोज निकलता हूँ,
ये वतन की शान-ओ-शौकत का नज़ारा है।
अवधेश प्रताप सिंह भदौरिया'अनुराग'Dt.27032016/CCRAI/OLP/Docut.