सैलाब बन कर के जवानी बह गई,
तकदीर भी अपनी कहानी कह गई।
फिर बुझ गई जलते चिरागों की लहक,
कमबख्त जलबों की निशानी रह गई।
वक़्त-ऐ-रुखसत और क्या देंगे हुज़ूर,
अब पास तेरे बेजुबानी रह गई।
हमने सुना था हैं हजारों मातहत,
फिर भी मीनारों की बुलंदी ढह गई।
तुम खेलिये मत आग से बारूद में,
गर कोई चिंगारी उछल के बह गई।
इस बदलते दौर की फितरत समझना,
है बहुत ही मुश्किल निभानी पैह गई।
जो लोग बच-बच के गुजरते हैं यहाँ,
पर उनके पाँव की निशानी रह गई।