
***ग़ज़ल***
सहमा -सहमा क्यों चुप-चुप सा रहता है,
शायद घर का कोना-कोना डरता है।
अब तक था सब ठीक,अचानक बदल गया,
समझो तो बदलाव बहुत कुछ कहता है।
धूप-छाँव का अगर मिलन संभव हो जाये,,
शुभ-अशुभ लगे संकेत प्रलय का होता है।
नहीं देख सकता क्या?उस पार क्षितिज के,
सूरज क्यों उगता है फिर क्यों ढलता है।
क़तरा-कतरा पिघल रहा है मेरा मन,
जीवन क्यों टुकड़ों-टुकड़ों में मरता है।
फिर संबंधों को सत्य समर्पण करना होगा
टूट-टूट कर पुनह संवरता रहता है।
पैरों से चलते रहते हैं बे-हिसाब,
एक सफर सा'अनुराग' बहता रहता है।