बीते कल अर्थात 31 जुलाई 2023 को मैं माननीय रजिस्ट्रार ज्यूडिशियल श्री एस आर गांधी जी की न्यायालय में अपनी याचिकाओं पर सुनवाई हेतु उपस्थित हुआ था। जहां पर पहुंचते ही सर्वप्रथम मेरी भेंट माननीय रजिस्ट्रार ज्यूडिशियल के सहायक सचिव आदरणीय श्री विकास भारती जी से हुई थी। जो अत्याधिक व्यस्त थे। परन्तु अपनी व्यस्तता में भी उन्होंने अपनी मधुर वाणी से मुझे आदरणीय श्री रजनीश रैना जी के कार्यालय में उपस्थित होने का निर्देश दिया। जिसे मैंने पिछली बार का हवाला देते हुए सिरे से खारिज कर दिया और माननीय रजिस्ट्रार ज्यूडिशियल के दरवाजे पर खड़ा रहा था। जहां मेरी आयु से कम और ज्यादा आयु वाले विद्वान अधिवक्ता सरलता से दरवाजा खोलते हुए बिना शीश झुकाए भीतर प्रवेश कर जाते थे। परन्तु मैं दरवाजे पर ही खड़ा रहा था। सौभाग्यवश माननीय रजिस्ट्रार ज्यूडिशियल ने मुझे दरवाजे पर खड़े देख लिया था। अंततः मैंने उनसे अंदर आने की अनुमति मांग ही ली। जिसपर उन्होंने अपने सहायक श्री विकास भारती जी के कमरे की ओर हाथ से संकेत किया था। जिसके फलस्वरूप मैं वहां निश्चिंत होकर बैठ गया।
कुछ समय उपरांत श्री विकास भारती जी अपने कमरे में लौट आए। जिन्हें मैंने विधिवत रूप से खड़े होकर सम्मान दिया और उनके कुर्सी पर बैठते ही मैं पुनः कुर्सी पर बैठ गया। उन्होंने पुनः सादर पूछा कि आप श्री रजनीश रैना जी के कार्यालय में उपस्थित नहीं हुए! मैंने पुनः विनम्रतापूर्वक उन्हें बताया कि पिछली बार भी उन्होंने मेरी पीड़ाओं का मूल्यांकन करते हुए मुझे आपके पास वापस भेज दिया था। इसलिए मैं अपने बर्बाद जीवन की भांति उनके अनमोल समय को भी बर्बाद नहीं करना चाहता था। अतः कृपया मुझे क्षमा करते हुए माननीय रजिस्ट्रार ज्यूडिशियल से अपनी व्यथाओं को क्रमवार ढंग से प्रस्तुत करने का सुअवसर प्रदान कर कृतार्थ करें।
जिसपर उन्होंने माननीय रजिस्ट्रार ज्यूडिशियल की अत्यधिक व्यस्तता का हवाला देते हुए पुनः स्पष्ट इंकार कर दिया और आरोपियों को जवाब देने के लिए कम से कम दो सप्ताह का समय एक बार और देने पर बल दिया। जबकि उन्हें और समय न देने के विरोधाभास पर श्री विकास भारती जी ने माननीय उच्च न्यायालय के नियम 15 का भी सौहार्दपूर्ण वातावरण में मुझसे तर्क किया। जिसे मैंने चुनौती देने का मन बनाया और आग्रह करते हुए विनम्रतापूर्वक पूछा कि क्या माननीय जम्मू और कश्मीर और लद्दाख उच्च न्यायालय आरोपियों के साथ उनके पक्ष में खड़ी है?
जो बार-बार माननीय न्यायालय द्वारा मेरी याचिकाओं के जवाब देने के लिए कड़े आदेशों को न मानते हुए पिछले एक वर्ष से उत्तर नहीं दे रहे हैं। क्या यह उत्तरदाताओं द्वारा माननीय जम्मू और कश्मीर और लद्दाख उच्च न्यायालय का स्पष्ट अपमान नहीं है या माननीय न्यायालय की अवमानना नहीं है? जिसपर आदरणीय श्री विकास भारती जी ने भी मेरी याचिकाओं पर उत्तरदाताओं की भांति धारे मौन की भांति मौन धारण कर लिया। जिसे उनकी मौन स्वीकृति मान लेना अतिश्योक्ति नहीं होगी।
कुछ अन्तराल में श्री विकास भारती जी ने अपना मौन भंग कर मुझे समझाते हुए कहा कि आप ज़िद न करें और अगली तारीख ले लें। चूंकि हम जानते हैं कि भारत सरकार आपको पेंशन दे रही है। जिसे सुनकर मेरी रूह तक कांप उठी और थरथर कांपते हुए मेरी आंखों में ऑंसू उमड़ पड़े। जिन्हें नियंत्रित करते हुए मैंने उनकी आंखों में आंखें डालकर उन्हें सादर बताया कि यही तो रोना है कि माननीय जम्मू और कश्मीर और लद्दाख उच्च न्यायालय के असंवैधानिक आदेश पर मुझे पागल की पेंशन दी जा रही है। जिसे पाकर मैं प्रत्येक माह सार्वजनिक रूप से घोर अपमानित होता हूॅं। चूंकि आज तक मुझे किसी भी डॉक्टरों के बोर्ड ने मुझे मानसिक दिव्यांग घोषित नहीं किया और न ही मुझे मानसिक दिव्यांगता का प्रमाणपत्र दिया।
उसी असंवैधानिक पेंशन से छुटकारा पाने के लिए मैं माननीय जम्मू और कश्मीर और लद्दाख उच्च न्यायालय में उपस्थित हुआ हूॅं। जिस कलंकित पेंशन के कारण बारम्बार अपमानित भी हो रहा हूॅं। जिसके विरुद्ध इसी माननीय न्यायालय के सर्वप्रथम माननीय विद्वान न्यायाधीश न्यायमूर्ति श्री राजेश बिंदल जी (वर्तमान में माननीय उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश के रूप में कार्यरत) उनके उपरांत माननीय न्यायाधीश न्यायमूर्ति श्री धीरज सिंह ठाकुर जी (वर्तमान में अन्य माननीय उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के रूप में कार्यरत) और पूर्व मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति श्री पंकज मिथल जी (वर्तमान में उच्चतम न्यायालय में कार्यरत) से भी तर्क वितर्क करते हुए कई बार उलझ चुका हूॅं। यही नहीं बल्कि उनसे खुली न्यायालय में पागल का प्रमाणपत्र मांग चुका हूॅं। सच तो यह भी है कि मानसिक दिव्यांगता का प्रमाणपत्र पाने हेतु उन्हें भी चुनौती दे चुका हूॅं। इसके अलावा उन्हें खुली न्यायालय में पूछ चुका हूॅं कि आपने भारतीय नागरिकों को न्याय देने एवं दिलाने के लिए जो संवैधानिक शपथ ग्रहण की हुई है। क्या आप उक्त शपथ के मौलिक कर्तव्यों को पूरा करते हो? जिसपर उपरोक्त माननीय न्यायाधीश भी मेरी याचिकाओं के उत्तरदाताओं की भांति चुप्पी साध लेते थे। जिसपर मेरा दुर्भाग्य यह है कि मैं अभी कुछ भी प्राप्त नहीं कर पाया और वह माननीय न्यायाधीश सौभाग्यवश उन्नति पाकर सुखमय जीवन जी रहे हैं।
हालांकि एक बार ऐसा विभत्स समय भी आ गया था कि पूर्व मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति श्री पंकज मिथल जी मुझे न्यायालय की आपराधिक मानहानि के लिए जेल भेजने पर उतारू हो गए थे। परन्तु दूसरे ही क्षण मेरे कठोर प्रश्नों की वर्षा पर विचारमग्न हो गए थे। जिनमें मैं पूछ रहा था कि न्यायव्यवस्था को सुधारना, न्यायिक भ्रष्टाचार को समाप्त करना और न्यायिक आतंक से याचिकाकर्ताओं को मुक्ति नहीं देना क्या माननीय विद्वान न्यायाधीशों द्वारा ली गई संवैधानिक शपथ का अपमान नहीं है? तब जाकर उन्होंने मुझे न्यायिक उपचार हेतु पुनः याचिकाएं दायर करने वाला आदेश सुनाया था। जिसके फलस्वरूप आज भी मैं न्याय की मांग कर रहा हूॅं और न्याय से कोसों दूर अकेला खड़ा हूॅं। परन्तु ईश्वरीय कृपा यह है कि मैं आज भी माननीय न्यायालय पर विश्वास करता हूॅं और न्याय की आशा में ही आपके समक्ष खड़ा हूॅं।
जिसे सुनकर श्री विकास भारती जी ने चेहरे पर मुस्कान बिखेरते हुए कुशलतापूर्वक कहा कि हम आपके तर्कों को अस्वीकार "डिनाई" नहीं कर रहे हैं। परन्तु अपने उच्च न्यायिक अधिकारियों के विरुद्ध कुछ सुनना भी नहीं चाहते हैं और ना ही उनपर कोई प्रतिक्रियात्मक टिप्पणी कर सकते हैं। परन्तु वह अगले ही पल शीतल मन से मुस्कुराते हुए अपनी विशिष्ट बुद्धि का परिचय देते हुए मेरी पीड़ाओं को कुरेदने लगते थे। सच्चाई यह है कि धन्य हैं वह और उनकी दिनचर्या जिसमें वह पूरा दिन कार्यालय में आए लोगों की समस्यायों को मधुरता से सुलझाते रहते हैं। जो मेरे लिए ज्ञानवर्धक ही नहीं बल्कि मार्गदर्शक भी था।
श्री विकास भारती जी द्वारा कुरेदने पर मैंने उन्हें बताया कि मैंने कभी माननीय न्यायपालिका पर उंगली नहीं उठाई। हां जो न्यायिक अधिकारी या माननीय न्यायाधीश भ्रष्टाचार की आधारशिला पर खड़े होकर संविधान के प्रति अपने मौलिक कर्तव्यों को पूरा नहीं करते हैं, उनके विरुद्ध अपनी ध्वनि बुलंद अवश्य करता हूॅं। जैसे माननीय जम्मू और कश्मीर और लद्दाख उच्च न्यायालय के तथाकथित विद्वान माननीय न्यायाधीश न्यायमूर्ति श्री ए.एम. मीर जी की काली करतूतों को सार्वजनिक उजागर किया है और तब तक करता रहूंगा जब तक मुझे और मेरी पीड़ित धर्मपत्नी श्रीमती सुशीला बाली को सम्पूर्ण न्याय नहीं मिल जाता। क्योंकि उन्होंने ने मेरी देवी स्वरूप धर्मपत्नी श्रीमती सुशीला बाली को अन्याय परोस कर माननीय जम्मू और कश्मीर और लद्दाख उच्च न्यायालय के साथ-साथ भारतीय संविधान को भी कलंकित किया हुआ है। यही नहीं उन्होंने तत्कालिक मुख्य न्यायाधीश के आदेश को भी कलंकित किया था। जिन्होंने न्याय की मांग करता मेरा धर्मपत्नी का मार्मिक लिखित पत्र न्यायालय में न्याय हेतु प्रस्तुत किया था। और तो और उन्होंने जारी अपने नोटिस को भी घूस की बलि चढ़ा दिया था। यहां तक कि उन्होंने जम्मू और कश्मीर सरकार के स्वास्थ्य विभाग द्वारा गठित डॉक्टरों के बोर्ड द्वारा जारी प्रमाणपत्र का भी अपमान करते हुए मुझे अंतड़ियों की तपेदिक की दवाई दिलवाने के स्थान पर मानसिक उपचार करवाने का आदेश पारित किया था। उसके लिए उन्होने मेरे विभागीय अधिकारियों से कितनी घूस ली थी? वही उचित बता सकते हैं कि उन्होंने मेरी, मेरे परिवार की, माननीय न्यायालय की, भारत के संविधान की क्या कीमत लगाई थी?
जिसका उदहारण विश्व की किसी भी माननीय न्यायालय में नहीं मिलता कि एक भ्रष्ट न्यायाधीश डॉक्टरों द्वारा प्रमाणित तपेदिक रोगी को "मानसिक रोग" का उपचार करवाने के लिए विवश करे। जबकि मानसिक रोग विशेषज्ञों द्वारा रोगी को पूर्ण रूप से मानसिक स्वस्थ घोषित किया गया हो। ऐसी अमानवीयता का उदहारण विश्व में ढूंढने से भी नहीं मिल रहा है। ऐसे में पीड़ित के न्याय में देरी करना अन्याय ही नहीं बल्कि दण्डनीय अपराध है।
उपरोक्त पीड़ाओं को सुनने के उपरांत श्री विकास भारती जी अपनी कुर्सी से उठकर खड़ हो गए और मुझे कहा चलो आपकी याचिकाओं पर विचार करने हेतु श्री रजनीश रैना जी के पास चलें। हम दोनों ने जैसे ही आदरणीय रजनीश रैना जी के कार्यालय में प्रवेश किया तो उन्होंने अपने विवेक से श्री विकास भारती जी को बताया कि अब उत्तरदाताओं को और समय नहीं दिया जा सकता। क्योंकि उन्हें पहले ही माननीय न्यायालय ने बहुत समय दे दिया है। इसलिए यदि साहब की आज्ञा हो तो इन याचिकाओं को पुनः न्यायालय में सूचीबद्ध किया जा सकता है। जिसे श्री विकास भारती जी मान लिया और आदरणीय श्री रजनीश रैना जी ने तुरन्त 09 अगस्त 2023 की तिथि घोषित कर दी।
जिसपर मैंने अत्यधिक प्रसन्नता व्यक्त की और मन ही मन आदरणीय श्री रजनीश रैना जी के साधुवाद को नमन करते हुए "धन्यवाद धन्यवाद" कहते हुए आदरणीय श्री विकास भारती जी के साथ वापस चल पड़ा। जिन्होंने रास्ते में मुस्कुराते हुए मुझे पूछा था कि क्या आप आज मंदिर में विशेष पूजा अर्चना कर यहां आए थे। मैंने शनिदेव जी एवं जय राजा मंडलीक जी को स्मरण करते हुए "हां" में सिर हिलाया था।
अंत में मैंने उनसे आग्रह किया कि मुझे माननीय रजिस्ट्रार ज्यूडिशियल श्री एस आर गांधी जी का धन्यवाद करने हेतु उनकी माननीय न्यायालय में जाने की अनुमति दें। जिसपर उन्होंने कोई विरोध नहीं किया था। उनकी मौन स्वीकृति पाकर मैंने माननीय रजिस्ट्रार ज्यूडिशियल जी की न्यायालय का दरवाजा खोलकर उसमें प्रवेश किया और देखा कि वह अपनी कुर्सी से दूर सोफे पर बैठे हैं। जिन्हें मैंने धन्यवाद शब्द से सुशोभित किया और उनकी माननीय न्यायालय के सम्मान हेतु शीष झुकाया। उसके उपरांत वहां से प्राकृतिक प्रसन्नता से परिपूर्ण अपने आगामी पथ पर अग्रसर हो गया। जय हिन्द सम्माननीयों ॐ शांति ॐ
प्रार्थी
इंदु भूषण बाली
व्यक्तिगत रूप से याचिकाकर्ता (पिटीशनर इन पर्सन)
वरिष्ठ लेखक व पत्रकार, राष्ट्रीय चिंतक, स्वयंसेवक, भ्रष्टाचार के विरुद्ध विश्व की लम्बी ग़ज़ल, राष्ट्रभक्ति एवं मौलिक कर्तव्यों के नारों में विश्व कीर्तिमान स्थापितकर्ता
एवं
भारत के राष्ट्रपति पद का पूर्व प्रत्याशी,
वार्ड अंक 01, डाकघर व तहसील ज्यौड़ियां, जिला जम्मू, केंद्र शासित प्रदेश जम्मू और कश्मीर, पिनकोड 181202।