
**ग़ज़ल**
यारों फ़क़त एहसासो को जीकर करोगे क्या,
नमीं तो आँखों में भी है पीकर करोगे क्या ।
हर शाख सूखी है परिंदा है न कोई घोंसला,
कटे हैं वक़्त से लम्हें इन्हें सीकर करोगे क्या।
उम्मींदों के भंवर है ज़िन्दगी लहरों के ऊपर,
किनारें मिल भी जायेंगे बता पाकर करोगे क्या।
सुर्खियों में हम नहीं कुछ लोग'काफिर'हैं मगर,
इन्हें सम्मान दोगे या सजा बाहर करोगे क्या।
अँधेरी रात रौशन जुगनुओं से हो नहीं सकती,
इनको ख़िताब-ए-नूर से नाज़िर करोगे क्या।
मेरे मालिक हमें इस वक़्त बस तुम पर यकीं है,
वतन में सर-फरोशी का समां हाज़िर करोगे क्या।
अगर तुम ठान लो दिल से तो मुश्किल कुछ नहीं है,
इरादा कीजिए 'अनुराग' झुक कर करोगे क्या।
अवधेश प्रताप सिंह भदौरिया'अनुराग'Dt.25032016/CCRAI/OLP/Doct.