ज़हर को चखना परखना आ गया,
अगर पैरों को थिरकना आ गया।
रफ्ता-रफ्ता हो गये माहिर परिंदे,
रुख हवाओं का समझना आ गया।
धूप की चादर उठाकर ओढ़ ली,
अब अंधेरों से निकालना आ गया।
तोड़कर खामोशियों के हौंसले,
बेजुबानों को चहकना आ गया।
आप उन फूलों के तेवर देखिए,
खिल गये जिनको महकना आ गया।
आँधियों के साथ कुछ दिन उड़ लिये,
यार तिनकों को लहकना आ गया।
है गर्दिशों की धुंध कितनी बदगुमां,
खूब रुक-रुक के बरसना आ गया।
सुन जरा मेरी नबज फिर बोलना,
आज अब दिल को धड़कना आ गया।
चाहे जितनी ठोकरें हो वक़्त की,
हमको मुश्किल में संभलना आ गया।