चलते-चलते मेरे रास्ते मुड गए,
मंज़िलें खो गईं हादसे जुड़ गए।
रात काली है रौशन सवेरा नहीं,
आंधीयाँ भी नहीं है दिये बुझ गए।
क़यामत आये या कोई जलजला,
घोंसले छोड़कर सब परिंदे उड़ गए।
हैं उजालों के घर में अंधेरे बहुत,
इनके करम आखिर सज़ा बन गए।
आम समझा था वो मसीहा निकला ,
मेरे आँगन में उसके कदम पड गए।
आज भी रहता है उनका इंतज़ार,
वो लौट कर आते नहीं जो मर गए।
पहले आंखों में उतर फिर बात कर
नहीं ज़िन्दगी उनकी नहीं जो डर गए।
अवधेश प्रताप सिंह भदौरिया'अनुराग'Dt08042016/crrai/olp/doct.