***ग़ज़ल***
मौन हूँ अभी बोलना छोड़ा नहीं है,
धुंधला ही सही आइना टूटा नहीं है।
माहिर हैं जो अपने हुनर में आदमीं,
अपनी किस्मत पर कभी रोता नहीं है।
हम भर दिये हैं मोम से मन की दरारें ,
तुम मुस्कुराओ दर्द-ऐ-दिल दिखता नहीं है।
धीरे-धीरे हो गये सारे चिराग़ाँ गुल,
लेकिन दिया उम्मीद का बुझता नहीं है।
तालिबों को सब पता हैं इल्म की बातें ,
ईमां कहीं बाजार में मिलता नहीं है।
मुश्किलों में ज़िंदगी हमको संभलना आ गया,
वाकिफ किसी हालात से डरता नहीं है।
अभी तन्हा सुलगने दो जलेंगे देर तक,
'अनुराग'बुझती आग का चरचा नहीं है।